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________________ नीति वाक्यामृतम् विरुद्ध-रुष्ट हुई स्त्रियों को वश में करना देवों को भी संभव नहीं है ।। अर्थात विपरीत आचरण करने वाली कुटिल स्त्रियों को कण्ट्रोल में रखने का उपाय देवता भी नहीं समझते हैं 1112॥ वल्लभदेव ने भी कहा चतुरः सृजता पूर्वमुपायां स्तेन वेधसा । न सृष्टः पंचमः कोऽपि गृह्यन्तेयेन योषितः ।।1॥ सांसारिक विषयसुख प्राप्ति का हेतू पुण्य होता है । अतएव रूपवती, सौभाग्यवती, पतिव्रता, सदाचारिणी एवं पुत्रवती स्त्री पूर्वजन्मकृत महान पुण्य से प्राप्त होती है !" || चारागण सिद्वान ने भी कहा है सुरूपं सुभगं यद्वा सुचरित्रं सुतान्वितः ।। यस्येदृशं कलत्रं स्यात्पूर्वपुण्यफलंहि तत् ।।1॥ अर्थ उपर्युक्त ही है |13॥ चञ्चल-दुराचारिणी स्त्री कामदेव के समान सुन्दर पति प्राप्त कर भी पर पुरुष की अभिलाषा करती है । कुपथगामिनी स्त्री के विषय में नारद ने भी कहा है : कामदेवोपमं त्यक्त्वा मुखप्रेक्षं निजं पतिम् । चापल्याद्वाञ्छते नारी विरूपांगमपीतरम् ।।1॥ अर्थ वही है ।।14॥ जो कामिनी परपुरुष से सतत् विरक्त रहती है, स्व पति के साथ ही रमण करती है तथा पति से प्राप्त वस्तुएँ प्रासकर उन्हीं से संतुष्ट रहती है और ईर्ष्याहीन पतिवाली स्त्री सदाचारिणी-पतिव्रता रह सकती है । पर से स्नेह करने वाली, लज्जा और भय रखने वाली नारी पतिव्रता नहीं रह सकती । जैमिनि विद्वान का भी यही अभिप्राय है : अन्यस्यादर्शनं कोपात् प्रसादः कामसंभवः । सर्वा सामेव नारीणामेतद्र क्षत्रयं मतम् ॥ अर्थात् सम्पूर्ण स्त्रियों के रक्षण के तीन उपाय हैं - परपुरुष का नहीं देखना, पतिकोप से भी प्रसन्न रहना, काम-रति सेवन पति के साथ कर ही संतुष्ट रहना ।। अभिप्राय यह है कि स्वपुरुष सन्तोष व्रत पालन करना चाहिए 115|| स्त्रियों का अन ल रखने का उपाय, पति का कर्तव्य, स्त्री सेवन का समय व स्त्री रक्षा-दानदर्शनाभ्यां समवृत्तौ हि पुंसि नापराध्यन्ते स्त्रियः ।। 1परिगृहीता सुस्त्रीषु प्रिया-प्रियत्वं न मन्येत ।।17॥ कारणवशानिम्बोऽप्यनुभूयते एव In8॥ चतुर्थ दिवसस्नाता स्त्री तीर्थ तीर्थोपराधो महान् धर्मानुबन्ध: ।19॥ ऋतावपिस्त्रियमुपेक्षमाणः पितणामुणभाजनं ।।20।। अवरुद्धाः स्त्रियः स्वयं नश्यन्ति स्वामिनं वा नाशयन्ति ।।21॥न स्त्रीणामकर्तव्ये मर्यादास्ति वरमदिवाहोनोढोपेक्षणं ।।221अकुत रक्षस्य किंकलनेणाकृषतः कि क्षेत्रेण ।।231 - -
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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