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________________ नीति वाक्यामृतम् प्रभूतमपि चेद्वित्तं पुरुषस्य स्त्रियं बिना । मृतस्य मण्डनं यद्वत् तत्तस्य व्यर्थमेव हि ।।1।। स्त्रियों की प्रकृति का स्वरूप : सर्वाः स्त्रियः क्षीरोदबेला इव विषामृतस्थानम् ॥10॥ मकरदंष्ट्रा इव स्त्रियः स्वाभावादेव वक्रशीलाः ॥11॥ स्त्रीणां वशोपायो देवानामपि दुर्लभः ।।12। कलत्रं रूपवत्सुभगमनवद्याचारमपत्यवदिति महतः पुण्यस्य फलम् ॥13॥ कामदेवोत्संग स्थापि स्त्री पुरुषान्तरमभिलपति च ॥14॥न मोहो लज्जा भयंस्त्रीणां रक्षणं किन्तु परपुरुषादर्शनं संभोग: सर्वसाधारणता च ।।15।। अन्यवार्थ:- (सर्वाः) समस्त (स्त्रियः) स्त्रिया (क्षीरोदवेला) क्षीरसागर की लहरों (इव) समान (विषम्) विष-दुख (अमृतम्) अमृत-सुख की (स्थानम्) स्थान [सन्ति] हैं ।10 (मकरदंष्ट्रा) मगर को डाढ (इव) समान (स्त्रियः) नारियाँ (स्वभावात्) स्वभाव से (एव) ही (वक्रशीलः) कुटिल हैं ।11। (स्त्रीणाम्) महिलाओं के (वशोपाय:) वश करने का उपाय (देवानाम्) देवों के (अपि) भी (दुर्लभः) कठिन [अस्ति] है 1112 ।। (रुपवत्) सुन्दरी (सुभग) सुशीला (अनवद्या) निर्दोष (आचारा) आचार वाली (अपत्यवत्) पुत्रवती (इति) ऐसी (कलत्रं) स्त्री (महतः) महान् (पुण्यस्य) पुण्य का (फलम्) फल [अस्ति] है ।13 || (कामदेवोत्संगस्थापि) कामदेव समान पति संगम होने पर भी (स्त्री) चंचल स्त्री (पुरुषान्तरम्) अन्य पुरुष को (अभिलषति) चाहती है 14| (मोहः) स्नेह (लज्जा) शर्म (भयम्) डर (स्त्रीणाम्) नारियों की (रक्षणम्) रक्षक (न) नहीं (किन्तु) अपितु (परपुरुषः) अन्यपुरुष (अदर्शनम्) नहीं देखना (संभोगः) भोग-पति संभोग (च) और (सर्वसाधारणता) ईर्षारहिता [रक्षणम्] रक्षक [अस्ति] है ।15॥ विशेषार्थ :- क्षीर सागर की तरंगों में विष एवं अमृत दोनों ही पाये जाते हैं । इसी प्रकार नारियों में भी विष-दुःखदायक एवं अमृत-सुखदायक प्रवृत्ति पायी जाती है । अर्थात् क्रूरता और मृदुता ये दोनों ही दोष व गुण पाये जाते हैं। अभिप्राय यह है कि जो सुशील अनुकूल रहने वाली स्त्री होती है वह सुखदायक होती है और जो प्रतिकूल आचरण करने वाली होती है वह विषसदृश कष्टदायक होती है 1110 ॥ बल्लभदेव ने भी कहा है : नामृतं न विषं किंचिदेकां मुक्त्वा नितम्विनीम् । विरक्ता मारयेद्यस्मास्सुखायत्यनुरागिणी ॥ स्त्रियाँ मगरमच्छ की दाढों के समान स्वभाव से ही कुटिला होती हैं ।11। बल्लभदेव ने भी इसी प्रकार कहा है : स्त्रियोऽति वक्रतायुक्ता यथा दंष्ट्रा झषोद्भवाः । ऋजुत्वं नाधिगच्छन्ति तीक्ष्णत्वादति भीषणाः ॥ अर्थ :- स्त्रियों अतिवक्रता युक्त होती हैं जैसे मगर की दाढ । सरलता नहीं आती क्योंकि अत्यन्त-भीषण तीक्ष्णता होने से मुक्त होती हैं ।1।।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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