SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -नीति वाक्यामृतम् । से (आचक्रवर्तिनः) चक्रीपर्यन्त (सर्वाः) सभी (अपि) भी (स्त्रीसुखाय) पलि सुख के लिए (क्लिश्यंति) दुखी, होते हैं 18 ॥ (स्त्रीसंगस्य) नारी संगति से (निवृत्तः) विरक्त पुरुष के (धनपरिग्रहो) अर्थ संचय (मृत) मुर्दे के (मण्डनम्) श्रृंगार (इव) समान है ॥ विशेषार्थ :- मन्त्री, सेनापति, सैनिक आदि कितने ही सुभट-शक्तिशाली क्यों न हों, यदि राजा नहीं है तो विजयश्री इन्हें प्राप्त नहीं हो सकती । अर्थात् विपत्तियों का सामना नहीं कर सकते । अराजक होने पर शत्रुओं के हमला होने पर राष्ट्र की संकट से रक्षा नहीं कर सकते ।।5 ॥ वशिष्ठ भी यही कहते हैं - वाजप्रकृतयोनैव स्वामिना रहिताः सदा । गन्तुं निद्रणं यादत् नियः कान्तविवर्जिताः ।। जिस व्यक्ति की आयु पूर्ण हो चुकी, शरीर से प्राणों का वियोग हो गया उसके सभी आङ्गोपाङ्ग पूर्ण हैं, परन्तु क्या इस समय धन्वन्तरि वैद्य, जो अचूक औषधि दाता माना जाता है प्राण संचार कर सकता है ? नहीं । 72 कलाओं से निपुण भी पुरुष मृत्यु से नहीं बच सकता । इसी प्रकार राष्ट्र के सात अगों 1. स्वामी, 2. मंत्री, 3. राज्य, 4. किला, 5. खजाना, 6. सेना व 7. मित्र वर्ग में राजा की ही प्रधानता है । अतः सर्वप्रथम राजा को अपनी रक्षा करनी आवश्यक है।6॥ व्यासजी ने भी कहा है कि: न मंत्र न तपो दानं न वैद्यो न च भैषजम् । शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।।1।। अर्थ :- कालपीडित पुरुष मन्त्र, तप, दान, वैद्य व औषधि द्वारा नहीं बचाया जा सकता है In ॥ मृत्यु सर्वोपरि है । इसी प्रकार राष्ट्र रक्षार्थ राजा सर्वोपरि है । । राजा के निकट रहने वाली स्त्रियाँ होती हैं । स्त्रियों से भी अधिक निकटवर्ती बन्धु-बान्धव होते हैं, और इनसे भी अधिक समीपवर्ती पुत्र होते हैं । इसलिए राजा को सर्वप्रथम स्त्रियों से, पुनः कुटुम्बियों से और तत्पश्चात् अपने पुत्र से अपनी रक्षा करनी चाहिए 17॥ हर प्रकार से राजा का सुरक्षित होना अनिवार्य है ।।7॥ __ संसार में निकृष्ट लकडहारादि माना जाता है,-जघन्य पुरुष से लेकर चक्रवर्ती पर्यन्त समस्त पुरुष जाति स्त्री सुखलोलुपी हुए, उसके लिए कृषि, व्यापार, शिल्प व कलादि जीवनोपयोगी कार्यों को सम्पादन करते हैं । महाक्लेश उठाते हैं, कठिन कष्ट सहते हैं, पुनः धन संचित कर स्त्री सुख प्राप्त करते हैं 18 ॥ गर्ग विद्वान ने भी कहा है: कृषि सेवां विदेशं च युद्धं वाणिज्यमेव च । सर्व स्त्रीणां सुखार्थाय स सर्यो कुरुते जनः ।।1।। जिस प्रकार मुर्दे को वस्त्राभूषणों से अलंकृत करना व्यर्थ है ।। उसी प्रकार स्त्रीरहित पुरुष का धन संचय करना व्यर्थ है।॥ वल्लभदेव विद्वान ने कहा है : - 428
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy