SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् । - - - वंशजं च सुसम्बन्ध शिक्षितं राजसंयुतम् । कृतकर्म जनं पावें रक्षार्थ धारयेन्नृपः ॥1॥ राजा विदेशी पुरुष को, जिसे धन व सम्मान से मान्यता नहीं दी है, और पूर्व में सजा भोग चुका हो, ऐसा स्वदेशवासी, अधिकारी बनाया हो अपनी रक्षार्थ नियुक्त न करे । क्योंकि सम्मानविहीन व दण्डित व्यक्ति द्वेष युक्त होकर उससे बदले की चेष्टा करेगा । विरोधी हो जायेगा ।।3। शुक्र विद्वान के संग्रहीत श्लोकों का भी यही अर्थ नियोगिनं, समीपस्थं दण्डयित्वा न धारयेत् । दण्डको यो न वित्तस्य बाधा चित्तस्य जायते In ॥ अन्यदेशोद्भवं लोकं समीपस्थं न धारयेत् । अपूजितं स्वदेशीयं वा विरुद्धय प्रपूजितम् ॥2॥ दुष्टचित्त-दुर्जन व्यक्ति विक्षिप्त चित्त होने पर क्या-क्या अनर्थ नहीं करता ? सभी अनर्थों को कर डालता है । अत्यन्त स्नेहमयी माता भी विकृत, द्वेषयुक्त हो जाने पर क्या राक्षसी (हत्यारी) नहीं होती ? होती ही है ।14। शुक्र विद्वान कहते हैं : यस्य चित्ते विकारः स्यात् सर्वं पापं करोति सः जातं हन्ति सुखं माता शाकिनी मार्गमाश्रिता 11॥ विकृत चित्त पुरुष हिताहित विवेक शून्य हो जाता है 14 ॥ स्वामीरहित अमात्य की हानि, आयुशून्य पुरुष, राजकर्त्तव्य ( आत्मरक्षा ) व स्त्री सुखार्थ प्रवृत्ति धन संग्रह निष्फलः अस्वामिकाः प्रकृतयः समृद्धा अपि निस्तरीतुं न शक्नुवन्ति ।। ॥ देहिनि गयायुषि सकलांगे किं करोति धन्वन्तरि रपि वैद्यः ।। 6 ।। राज्ञस्तावदासन्ना स्त्रिय आसन्नतरा दायादा आसन्नतमाश्च पुत्रास्ततो राज्ञः प्रथमं स्त्रीभ्यो रक्षणं ततो दायादेभ्यस्ततः पुत्रेभ्यः । ॥आवष्ठादाचक्रवर्तिनः सर्वोऽपि स्त्रीसुखाय क्लिश्यति ।।8 | निवृत्त स्त्री संगस्य धन परिग्रहो मृतमण्डनमिव।। अन्वयार्थ :- (अस्वामिकाः) राजा बिना (प्रकृतयः) मंत्री, सेनापति आदि (समृद्धाः) समर्थ (अपि) भी (निस्तरीतुम्) विजय के लिए (न) नहीं (शक्नुवन्ति) समर्थ होते हैं । 5 ॥ (गतः) नष्ट (आयुषि) आयु होने पर (सकलाङ्गे) सम्पूर्ण अंग रहने पर (अपि) भी (देहिनि) शरीरी-प्राणी में (धन्वन्तरिः) धनवन्तरि (वैद्यः) वैद्य (अपि) भी (किम्) क्या (करोति) करता है ? ।।6 ॥ (तावत्) क्योंकि (राज्ञः) राजा के (आसन्ना) निकट (स्त्रियः) स्त्रि (आसन्नतराः) उससे भी निकट (दायादाः) कुटुम्बी (च) और (आसन्नतमाः) सबसे निकट (पुत्राः) पुत्र होते हैं (ततो) इसलिए (राज्ञः) राजा का (प्रथमम्) प्रथम (रक्षणम्) रक्षण (स्त्रीभ्यो) स्त्रियों द्वारा (ततः) फिर (दायादेभ्यः) कुटुम्बियों से (ततः) पुन: (पुत्रेभ्य:) पुत्रों द्वारा [भवतु] होवे 17 ॥ (आवष्ठात्) नीच-लकडहारा 427
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy