________________
-नीति वाक्यामृतम् ।।
स्वभाव से स्त्रियों के प्रतिमास रजोधर्म होता है । चतुर्थ दिवस स्नान करने पर उनकी शुद्धि मानी गई है। अर्थात् इस दिन वे उपभोग योग्य होती हैं । उस समय जो पुरुष अपनी पत्नी का त्याग कर देता है अर्थात् भोग नहीं करता वह अधर्मी माना जाता है । क्योंकि उसने गर्भधारण में बाधा डाली, जिससे धर्म परम्परा व वंशवृद्धि में सहायक सज्जातित्व-सन्तानोत्पत्ति में बाधा डाली । अतएव चतुर्थ दिन स्नान शुद्धि की गई स्त्री (धर्मपनि) को उपेक्षा नहीं करना चाहिए 19 ||
ऋतुधर्म के बाद चतुर्थस्नान के अनन्तर शुद्धिकर (स्नानकर) शुद्ध हुई स्त्री की उपेक्षा करने वाला व्यक्ति सन्तानोत्पत्ति में बाधक होने से अपने पूर्वजों का ऋणि-कर्जदार होता है 120 ।।
ऋतुकाल में भी सेवन नहीं की जाने वाली स्त्रियाँ अपना व अपने पति का अनिष्ट कर बैठती हैं । 21॥ गर्ग विद्वान का भी यही कथन है :
ऋतुकाले च सम्प्राप्ते न भजे वस्तु कामिनी
तहुःखात्सा प्रणश्येत स्वयं वा नाशयेत्पतिम् ॥ अर्थात - रुष्ट पत्नो पति की घातका हो जाती है |
विरुद्ध होने पर स्त्रियाँ पति का प्राण नाश भी कर सकती हैं । विरुद्ध नारियाँ मर्यादा का उल्लंघन कर देती हैं। अत: ऋतुकाल में विवाहित स्त्रियों का त्याग करने या उपेक्षा करने की अपेक्षा विवाह नहीं करना श्रेष्ठ है । अभिप्राय यह है कि बाल ब्रह्मचारी रहना सर्वोत्तम है । यदि विवाह किया तो यथाकाल उसका सेवन करना ही चाहिए । अन्यथा उसका विरोधी होना संभव है । 22॥ भार्गव ने भी कहा है :
नाक त्यं विद्यते स्त्रीणामपमाने कृते सति ।
अविवाहो बरस्तस्मान्न तूढानां विवर्जनम् ।।1॥ क्षेत्र है, परन्तु उसे जोते नहीं, उसमें वीजारोपण नहीं करे तो उस क्षेत्र से क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं। उसी प्रकार धर्मानुकूल विवाह कर यथा समय उसके साथ संभोग-रतिक्रीडा न करे तो स्त्रियों से क्या प्रयोजन ? क्योंकि उससे वंशवर्द्धन व धर्म परम्परा रक्षण रूप कार्य नहीं हो सकता 123 || स्त्रियों के प्रतिकूल होने का कारण, उनकी प्रकृति, दूतीपन, व रक्षा का उद्देश्य : सपलीविधानं पत्युरसमंजसं च विमाननमपत्याभावश्च चिरविरहश्च स्त्रीणां विरक्तकारणानि 124॥ न स्त्रीणां सहजो गुणो दोषो वास्ति किन्तु नद्यः समुद्रमिव यादृशं पतिमाप्नुवन्ति तादृश्यो भवन्ति स्त्रियः ।।25 ॥ स्त्रीणां दौत्यं स्त्रिय एवं कुर्युस्तैरश्चोऽपिपुंयोगः स्त्रियं दूषयति किं पुनर्मानुष्यः ।।26 ॥ वंश विशुद्धयर्थमनर्थपरिहारार्धं स्त्रियो रक्ष्यन्ते न भोगार्थम् ।।27 ॥
अन्वयार्थ :- (सपत्नीविधानम्) सौत होना (च) और (पत्यु:) पति का (असमंजसम्) मनोमालिन्य (विमाननम) अपमान (अपत्यभावः) बांझ होना (च) और (चिरविरहः) अधिक कालपति वियोग (स्त्रीणाम) स्त्रियों ।
-
-
-
-
432