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________________ नीति वाक्यामृतम् अन्वयार्थ :- (नीरात्) जल से (परम्) बढ़कर (महद्) महान (न) नहीं (अस्ति) है, (यत्) जो (मिलितम्) मिलते (एव) ही ( संवर्धयति) बढाता है (च) और (स्व) अपने ( क्षयेण ) नाश से (क्षीरम् ) दुग्ध को ( रक्षति) रक्षित करता है | 19 || (येन) जिस ( केन) तिस (अपि) भी (उपकारेण) भलाई से ( तिर्यञ्च) पशु (अपि) भी ( प्रत्युपकारिणः) प्रत्युपकार (च) और (मनुष्याः) मनुष्य (प्रायेण ) प्रायकर (पुनः) फिर (न) नहीं ( व्याभिचारिणः) अपवाद है 1110 ॥ इसी का उदाहरण 11वीं गाथा - सूत्र में है 11॥ विशेषार्थ :- पय के अतिरिक्त दूसरा कोई भी पदार्थ दूध का मित्र नहीं है । जो मिलने मात्र से ही उसकी वृद्धि कर देता है और अग्निपरीक्षा के समय अपना नाश करके भी अपने मित्र दूध की रक्षा करता है ॥ 9 ॥ संसार में पशुगण भी उपकारी के प्रति कृतज्ञ व विरुद्ध न चलने वाले होते हैं, न कि कृतघ्न पर मनुष्य प्रायः इसके विरुद्ध चलने वाले भी देखे जाते हैं वे उपकारी के प्रति कृतघ्नता कर डालते हैं o ॥ इतिहास में उपाख्यान प्राप्त होता है कि एक अटवी घनघोर जंगल था । उसमें घास आदि से आच्छादित एक अन्धकूप था । पापोदय से प्रेरित हुए उसमें एक समय वानर, सर्प और शेर और जुआरी, सुनार पड़ गये-गिर गये । पश्चात् कोई कांकायन नाम का राहगीर आया और करुणा कर उन्हें उस अन्ध कूप से बाहर निकाल लिया। उपकृत हुए उन पाँचों में से मर्कट, अहि, शेर व सुनार ये चारों उसका उपकार मान उसकी आज्ञानुसार अपने-अपने स्थान पर चले गये । परन्तु जुआरी कृतघ्न होने के कारण उसने उस पथिक के साथ कपटभाव से मित्रता कर ली । "मुंह में राम बगल में छुरी" कहावत को चरितार्थ करने उसके धनहरण की भावना से उसके साथ हो लिया । अनेकों ग्राम व नगरों में परिभ्रमण करता रहा । एक समय विशाला नगरी में पहुँचे । वहाँ के एक शून्य मन्दिर में ठहरे । पथिक सो गया, और मौका देख उस जुआरी ने उसका धन हरण कर लिया। इससे सिद्ध होता है कि तिर्यञ्च भी कृतज्ञ होते हैं, परन्तु कृतघ्नी भी होते देखे जाते हैं 1110 H इसी प्रकार गौतम नामक किसी तपस्वी ने नाडीजंघ नाम के उपकारी को स्वार्थवश मार डाला । यह कथा अन्यग्रन्थों से पढें ।।11।। ॥ इति मित्र समुद्देशः || इति श्री चारित्र चक्रवर्ती परम पूज्य मुनिकुञ्जर सम्राट विश्ववंद्य, परम तपस्वी, सर्वमान्य, घोरतपस्वी श्री 108 आचार्य आदिसागर जी अंकलीकर महाराज के पट्टशिष्य परम् पूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि श्री 108 आचार्य परमेष्ठी श्री महावीर कीर्ति महाराज की संघस्था, परमपूज्य वात्सल्य रत्नाकर, निमित्तज्ञान शिरोमणि आचार्य श्री 108 विमल सागर जी की शिष्या प्रथम गणिनी आर्यिका श्री 105 विजयामती ने यह 23 वां मित्र समुद्देश, परम पूज्य, उग्रतपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती अंकलीकर के तृतीयपट्टाधीश श्री 108 सन्मतिसागर जी महाराज के पुनीत चरण-कमल सान्निध्य में समाप्त हुआ ।। 41 ॥ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ " 425
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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