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नीति वाक्यामृतम्
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बहुत सा गोमण्डल-गाय, बैलों का समूह, सुवर्ण और चुंगी-टैक्स (कर-लगान) आदि द्वारा सम्पादित अर्थ- धन राजकोष की वृद्धि का हेतू है ।23 | गुरु विद्वान ने भी कहा है :
प्रभूता धेनवो यस्य राष्ट्रे भूपस्य सर्वदा ।
हिरण्याय तथा च शुल्कं युक्तं कोशामिवृद्धये ॥ क्षेत्र, सरोवर, कोट, गृह और मन्दिर इन पांच वस्तुओं के दान में आगे-आगे वाले दान पूर्व-पूर्व के दानों को बाधित कर देते हैं । अर्थात् पूर्व पूर्व वाला हीन या गौण माना जाता है । परन्तु प्रथम वस्तु का दान आगे की वस्तु के दान को हीन नहीं करता । अर्थात् क्षेत्र खेत के दान की अपेक्षा सरोवर का दान उत्तम है, इसी प्रकार सरोवर की अपेक्षा कोट का दान विशेष होता है, कोट दान की अपेक्षा गृहदान श्रेष्ठतर है और गृह दान से जिनालय-देवस्थान का दान उत्तम है । मुख्य माना जाता है । क्योंकि ये दान उत्तरोत्तर अधिक विशिष्ट पुण्यबन्ध के कारण हैं । इस विषय का स्पष्टीकरण करने को निम्न प्रकार समझा जा सकता है ।
(2) अर्थ :- एक विशाल भू प्रदेश लावारिस पड़ी थी । उस पर भिन्न-भिन्न पुरुषों ने भिन्न-भिन्न काल में अपनी रुचि के अनुसार क्षेत्र सरोवर, कोट, मकान और देवालय बनवा लिए । कुछ समयोपरान्त उनमें स्वामित्व सम्बन्धी विवाद खड़ा हो गया । अब प्रश्न था इसका न्यायाधीश किसे नियुक्त किया जाय? बात यह थी कि प्रथम रिक्त भूमि पर किसी पुरुष ने खेत (क्षेत्र) तैयार किया । दूसरे ने उसके चारों ओर कोट तैयार कर दिया 1 तीसरे ने सुन्दर सरोवर तैयार कर लिया । चौथे ने अपना प्रासाद तैयार करवा लिया और अन्य एक ने मन्दिर निर्माण करा लिया । तत्पश्चात् विवाद का सूत्रपात कर सब झगड़ने लगे । निर्णय यह हुआ कि आगे-आगे की वस्तु निर्माता न्यायोचित अधिकारी समझे जायेंगे । अर्थात् खेत बनाने वाले की अपेक्षा, सरोवर बनाने वाला, सरोवर वाले की अपेक्षा कोटनिर्माता, कोट की अपेक्षा गृह निर्माणकर्ता, गृह निर्माता की अपेक्षा मन्दिर बनाने वाला प्रधान अधिकारी समझा जायेगा । परन्तु पूर्व-पूर्व की वस्तु वाला नहीं । अतः अन्तिम मन्दिर बनाने वाला सर्वाधिक बलवान और प्रधान अधिकारी माना गया । भावार्थ या सारांश यह है कि उपर्युक्त रीति से मन्दिर बनाने वाला ही पूर्ण जमीन का अधिकारी स्वीकृत किया जायेगा । यही धर्म न्याय है ।
__ "इति जनपद समुद्देशः ।। इति श्री परम् पूज्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर सम्राट् विश्ववंद्य घोर तपस्वी, वीतरागी, दिगम्बर, चमत्कारी, जैनाचार्य श्री आदिसागर जी महाऋषिराज अंकलीकर के पट्टाधीश परम् पूज्य समाधि सम्राट् तीर्थभक्त शिरोमणि र चूडामणि श्री महावीर कीर्ति जी गुरुदेव की संघस्था, श्री परम् पूज्य निमित्त ज्ञान शिरोमणि, वात्सल्य रत्नाकर आचार्यपरमेष्ठी श्री विमलसागर जी महाराज की प्रिय शिष्या ज्ञानचिन्तामणि प्रथम गणिनी आर्यिका 105 श्री विजयामती द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका का यह उन्नीसवाँ जनपद समुद्देश परम पूज्य तपस्वी सम्राट् भारत गौरव, सिद्धान्त चक्रवर्ती गुरुवर्य अंकलीकर के तृतीय पदाधीश श्री 108 आचार्य सन्मतिसागर जी महाराज के चरण सानिध्य में समाप्त किया गया ।। इति ।।
ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॐ शान्ति नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु ।।
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