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नीति वाक्यामृतम्
राष्ट्र के शुल्क स्थान-अर्थात् प्रमुख शहर व मुख्यतः कृषि प्रधान नगर ग्रामादि जो न्याय से सुरक्षित होते हैं । जहां पर अधिक टैक्स न लेकर न्यायोचित कर लिया जाता है, तथा चोरों-लुटेरों का भय न हो, चुराई गयी वस्तुओं को प्रजा को वापिस दिलाने का प्रयत्न हो, जहाँ व्यापारियों की खरीद-बिक्री की साधनभूत अनेक दुकानें हों । इस प्रकार के स्थान व व्यवस्था राजा को कामधेनु समान इच्छित फल देने वाले होते हैं । क्योंकि शुल्क स्थानों से नरपति टैक्स द्वारा प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त कर शिष्ट पालन और दुष्ट निग्नह में उपयोगी सैनिक विभाग, शिक्षाविभाग, स्वास्थ्य विभाग, आदि की उन्नति करने में समर्थ होता है, एवं राष्ट्र को शत्रुकृत उपद्रवों से सुरक्षित रखता हुआ खजाने की भी वृद्धि करता है । परन्तु शुल्क स्थान न्याय से सुरक्षित होने चाहिए अन्यथा प्रजा असंतुष्ट व क्षुब्ध हो जाने से राज्य राष्ट्र व राजा के विपत्ति में फंसने का भय हो जायेगा । कोषक्षति, शत्र-दल उपद्रवों की संभावना होगी । शुक्र विद्वान ने भी लिखा है :
ग्राह्यं नैवाधिकं शुल्कं चौरै वच्चाहृतं भवेत् ।
पिण्ठायां भूभुजा देयं वणिजां तत् स्वकोशतः ।।1॥ सेना व राजकोष की वृद्धि के कारण, विद्वान् व विनों को देने योग्य दान, भूमि व तालाब दान आदि में विशेषता :
राजांचतुरङ्गवलाभिवृद्धये भूयांसो भक्तानामाः ।।22।। सुमहच्च गोमण्डलं हिरण्याययुक्त शुल्क कोशवृद्धि हेतुः 1123 ॥ देवद्विज प्रदेया गोरुत्तप्रमाणा भूमितु रादातुश्च सुख निर्वाहा ।।24 ।। क्षेत्रवप्रखण्ड गृहमायातनानामुत्तरः पूर्व वाधते न पुनरुत्तरं पूर्वः ।।25॥
अन्वयार्थ :- (राज्ञाम्) राजाओं को (चतुरङ्ग) हाथी, घोड़े, रथ, पयादे (बलाभिवृद्धये) बल की वृद्धि करने के लिए कारण (भूयांसा:) अधिक (ग्रामाः) ग्राम (भक्ताः) विभाजित योग्य [न] नहीं हैं 122 || (सुमहत्) अति विशाल (गोमण्डलम) गाय, वृषभादि का समूह (च) और (हिरण्यः) सवर्ण (शल्कम) टैक्स द्वारा (युक्तम्) प्रास (आय) आमदनी (कोशवृद्धिः) खजाने की वृद्धि की (हेतुः) कारण होती [अस्ति] है ।।23 ॥ (देव) विद्वान (द्विजः) विप्र को राजा (गो:) गाय के (रुत्) रंभाने का शब्द (प्रमाणा) प्रमाण (भूमिः) भूमि (प्रदेया) देना चाहिए क्योंकि इससे (दातुः) देने वाला (आदातु: च) और लेने वालों का (सुखनिर्वाहा) सुख से निर्वाह होता है । 24 ॥ (क्षेत्र व प्रखण्ड गृहमायतनानाम्) क्षेत्र, सरोवर कोट, गृह और मन्दिर इन पाँचों का दान (उत्तरा:) अन्तिम वाले (पूर्वम्) पहले को (वाधते) बाधित करते हैं (पुन:) फिर (पूर्व:) पूर्व वाले (उत्तरम्) उत्तर वालों को (न) नहीं 125
विशेषार्थ :- जो भूमि व ग्राम धान्य की विशेष उपज करने वाले हैं उनको राजा को किसी को नहीं देना चाहिए। क्योंकि ये चतुरङ्ग बल-गज, अश्व, रथ, पयादों की वृद्धि व उनको बलिष्ठ बनाने के साधन हैं । शक्र विद्वान ने भी लिखा है :
चतुरङ्गवलं येषु भक्त ग्रामेषु तृप्यति वृद्धिं याति न देयास्ते कस्यचित् सस्यदा यतः ।।1।।
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