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नीति वाक्यामृतम् । प्रजानां पीडनाद्वित्तं न प्रभूतं प्रजायते । भूपतीनां ततो ग्राह्यं प्रभूतं येन तद्भवेत् ।।
अर्थ वही है 7॥ राजा ने पूर्व में जिनको टैक्स मुक्त कर दिया हो, पुनः उनसे चुंगी आदि नहीं लेनी चाहिए । क्योंकि ऐसा करने से उसके वचन का मूल्य कम हो जायेगा और प्रजा अविश्वस्त होगी । अतः उनका अनुग्रह करना चाहिए। इससे प्रतिष्ठा बढ़ेगी । नारद विद्वान ने भी कहा है :
अकरा ये कृताः पूर्व तेषां ग्राह्यः करो न हि ।
निज वाक्य प्रतिष्ठार्थ भू भुजा कीर्तिमिच्छता ।।1।। सत्य वचन सम्मान, प्रतिष्ठा, यश व विश्वास का प्रतिष्ठापक है । अतः राजा ने जो आज्ञा घोषित की हो तदनुसार चलना चाहिए ।।181
अमर्याद-सीमातिक्रान्त करने से धन धान्यादि से समृद्ध भूमि भी अरण्य जंगल हो जाती है । फलशून्य हो जाती है । अतएव विवेकी मानव व भूपति को नैतिकता का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए 119 || गुरु विद्वान ने कहा है :
मर्यादातिक मो यस्यां भूमौ राज्ञः प्रजायते । समृद्धापि च सा द्रव्यैर्जायतेऽरण्य सन्निभा ।1॥
उपर्युक्त ही अर्थ सरल है।
सूत्र नं. 20 में "स्वयं संग्रहः" पद करने पर यह अर्थ होता है कि जिस प्रकार तृण संग्रह भी कभी उपयोगी होता है उसी प्रकार दारिद्रयपीडित व्यक्ति भी उपकारक होता है । अतः राजा को निर्धन प्रजा का संरक्षण धनादि से अवश्य करना चाहिए ।। प्रजा की रक्षा के उपाय निम्न प्रकार समझने चाहिए :
(1) धनाभाव हो जाने से विपद्ग्रस्त परिवारों को आर्थिक सहायता प्रदान करना । (2) प्रजा से अन्यायपूर्वक तृणमात्र भी टैक्सादि वसूल नहीं करना । न्यायोचित टैक्स लेना अथवा दरिद्रपीड़ितों
से टैक्स नहीं लेना 1 (3) अपराध करने पर योग्य दण्ड विधान करना 120॥
सबका सार यह है कि प्रजा सन्तुष्ट रहे उस प्रकार राजा को शासन कर लेना चाहिए । नारद विद्वान ने भी लिखा है :
चिन्तनं क्षीणवित्तानां स्वग्राहस्य विवर्जनम् । युक्तदण्डं च लोकानां परमं वृद्धिकारणम् ॥
लोक रक्षा होना चाहिए 120 ॥
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