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= नीति शाक्यामृतम् । =
नीति बाक्यामृतम्
(20)
दुर्ग समुद्देशः
दुर्ग शब्दार्थ एवं उसके भेद :
यस्या भियोगात्परे दुःखं गच्छंति दुर्जनोद्योगविषया व स्वस्यापदो गमयतीति दुर्गम् ॥1॥ तद्विविधं स्वाभाविकमाहार्यं च ।2।।
अन्वयार्थ :- (यस्य) जिसके (अभियोगात्) सम्मुख होने से (परे) शत्रुदल (दुःखम्) दुःख को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं, (दुर्जनानाम्) दुष्टों के (उद्योग) प्रयत्न का (विषया) कारण (व) अथवा (स्वस्य) अपने स्वयं की (आपदा) विपत्ति को (गमयति) दूर करे (इति) वह (दुर्गम्) किला [अस्ति] है 11॥ (तद्) वह (द्विविधम्) दो प्रकार का (स्वाभाविकम्) प्राकृतिक (च) और (आहार्यम्) कृत्रिम बनाया हुआ ।।2।।
विशेषार्थ :- जिसके सान्निध्य को प्राप्त कर समरार्थ बुलाये गये शत्रुजन दुःखानुभव करते हैं, अथवा दुष्टों के उद्योग द्वारा विजिगीषु की आपत्तियाँ नष्ट होती हैं उसे "दुर्ग" कहते हैं । अर्थात् जिस समय विजिगीषु पृथिवीपति अपने राज्य में शत्रु द्वारा हमला होने के अयोग्य विकट स्थान-किला, खाई आदि स्थान बनवाता है तो उनसे अरिदल पीड़ित होता है । कारण उनके हमले विफल हो जाते हैं । अतः "दुर्ग" नाम सार्थक है । अथवा शत्रु: दुर्जनों के आक्रमणों के संकटों-दु:खों से जीतने के इच्छुक राजाओं के मनोरथ सफल होते हैं कष्ट टलते हैं इससे इसे "दुर्ग" कहते हैं ||1|| शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
यस्य दुर्गस्य सम्प्राप्तेः शत्रवो दुःखमाप्नुयुः ।
स्वमिनं रक्षयत्येव व्यसने दुर्गमेव तत् ।।1।। अर्थ :- जिसके सामीप्य को प्राप्त हो शत्रु वर्ग दुःखित होते हैं अथवा जो संकट आने पर स्वामी की रक्षा करता है उसे दुर्ग कहते हैं । जिस प्रकार कहा है :
दंष्ट्रा विरहितः सर्पो यथा नागो मदच्युतः । दुर्गेण रहितो राजा तथा गम्यो भवेद्रियोः ॥2॥
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