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________________ नीति वाक्यामृतम् I वसन्ति क्षत्रिया येषु ग्रामेष्वतिनिरर्गलाः स्वल्पापराधतोप्येव तेषु युद्धं न शाम्यति ॥ 1 ॥ उपर्युक्त प्रकार ही अर्थ समझना चाहिए ||11|| जिस गांव में ब्राह्मणों की संख्या अधिक होती है वहां भी राजा को विशेष दण्ड विधान करना पड़ता है। कारण कि ब्राह्मण स्वभाव से अतिलुब्धक होते हैं । जायज-नीतियुक्त टैक्स कर भी सरलता से नहीं देते । दण्डविधान बिना शान्त नहीं होते । अतः अधिक ब्राह्मणों का निवास भी कष्टप्रद है ।112 ॥ शुक्र ने कहा है : ब्राह्मणै र्भक्षितो योऽर्थो न स सान्त्वेन लभ्यते । यावन्न दण्डपारुष्यं तेषां च क्रियते नृपैः ।।1 ॥ वही अर्थ है ।।12 ॥ राजा का कर्त्तव्य है कि वह परदेश में प्राप्त हुए अपने देशवासी पुरुषों को जिनसे पूर्व में टैक्स करादि ग्रहण किया है अथवा नहीं भी किया है, उन्हें दान सम्मान द्वारा वश में करे । तथा अपने देश में निवास स्थान प्रदान करे । सारांश यह है कि अपने देशवासी शिष्ट पुरुषों को विदेश से बुलाकर अपने देश में बसाने से राष्ट्र की जनसंख्या वृद्धि, व्यापारिक उद्योग उन्नति, राजकोषवृद्धि, गुप्त रहस्यों का संरक्षण आदि अनेक लाभ होते हैं । जिनके फलस्वरूप राज्य की श्रीवृद्धि होती है, राज्य में अमन चैन रहता है 1113 ॥ शुक्र विद्वान का कथन परदेशगतं लोकं निजदेशे समानयेत् ।। भुक्तपूर्वमभुक्तं वा सर्वदैव महीपतिः ॥1॥ पाठान्तर का अर्थ यह है कि राजा परदेसवासी व उपद्रवकारी मनुष्य को जो कि इसके देश में रहना चाहता दानमानपूर्वक दूसरे देश में भेज देवें । क्योंकि ऐसा करने से प्रजा परदेसवासी प्रजा के उपद्रवों से सुरक्षित रहती | 13 || स्वल्पोऽ(पि) प्यादायेषु प्रजोपद्रवो महान्तमर्थं नाशयति 1114 ॥ पाठान्तर - स्वल्पोऽपि राष्ट्रेषु पर प्रजोपद्रवो महान्तमर्थं नाशयति ॥14॥ श्रीरिषुकणिशेषु सिद्धादायो जनपदमुद्वासयति 1115॥ लवनकाले सेनाप्रचारो दुर्भिक्षमावहति 1116 ॥ विशेषार्थं :- प्रजा तनिक भी अन्याय सहन नहीं कर सकती । अपितु उसे महान आर्थिक हानि होती है। राजा यदि आवश्यकता या नियम से विरुद्ध अधिक टैक्स लेता है तो जनता उसके विरोध में खड़ी होकर व्यापारादि ही बन्द कर देगी । आयात निर्यात के साधनों के अभाव में छल, कपट, असत्य प्रक्रिया प्रारम्भ कर देंगे । अतः राजा का न्याय युक्त शासन होना चाहिए ||14|| अतः गुरु विद्वान ने भी यही कहा है जो राजा लगान न देने से कुपित हो अपनी कृषकप्रजा की अर्द्धपक्व खेती को कटवा ले और उन्हें अन्य देश में जाने को बाध्य करे तो कृषक और राजा दोनों ही आर्थिक संकट भोगते हैं । दुर्भिक्ष हो जाता है । अतः राजा को इस प्रकार जनपद को, कृषकों को अन्याय का शिकार नहीं बनाना चाहिए ||15 ॥ 397
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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