SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् । Nने "निर्गम" कहा है 17॥ शुक्र विद्वान ने लिखा है : मोचापयति यो वित्तैर्निजैः स्वामिनमात्मनः । व्यसनेभ्यः प्रभूतेभ्यो निर्गमः स इहोच्यते ।।1।। अर्थ वही है 170 देश के गुण व दोष : अन्योन्य रक्षकः खन्याकर द्रव्य नाग धनवान् नातिवृद्ध नातिहीनग्रामो बहुसार विचित्रधान्य हिरण्य पण्योत्पत्तिरदेवमातृक: पशुमनुष्यहितः श्रेणिशूद्रकर्षक प्राय इति जनपदस्य गुणाः । ॥ विषतृणोदकोषर पाषाण कण्टक गिरिगर्त गह्वर प्रायभूमिभूरिवर्षा जीवनोव्याल-लुब्धकम्लेच्छ बहुलः स्वल्प सस्योत्पत्तिस्तरुफलाधार इति देश दोषाः ।।9। तत्र सदा दुर्भिक्षमेव, यत्र जलद जलेन सस्योत्पत्तिरकृष्ट-भूमिश्चारम्भः 110 ॥ अन्वयार्थ :- (अन्योऽन्य रक्षक:) एक दूसरे की रक्षा (खनि) खान (आकर) रुपया-पैसादि का खजाना (द्रव्य) पदार्थ (नाग) शीशा (धनवान्) खनिज पदार्थों से धनाढ्य (अतिवृद्धः) अत्यन्तवृद्ध (न) नहीं (न अतिहीन:) न हीन (ग्रामाः) ग्राम (बहसार) सारभत (विचित्र) नाना प्रकार (धान्य) अन्न (हिरण्य पण्योत्पत्ति) चाँदी व विक्रिय वस्तुओं की उत्पत्ति (अदेवमातकाः) मेघापेक्षारहित (पशुमनुष्यहितः) पशु व मनुष्य के हितकर (श्रेणिशूद्रकर्षकप्राय:) खेती सिंचाई के साधन हों (इति) ये (जनपदस्य) जनपद के गुण हैं 18 ॥ (विषम्) विष (तृणः) घास (उदकम्) जल (ऊषरा) बंजर (पाषाण:) पथरीला (कण्टक:) कांटे (गिरिः) पर्वत (गर्तः) गड्ढे (गह्वर) गुफा (प्रायः) अधिक रूप में (भूमिः) पृथ्वी (भूरिवर्षा) अधिक वर्षा से (जीवनः) फलती हो (व्यालः) सर्प (लुब्धकः) लोभी (म्लेच्छ:) म्लेच्छ (बहुल:) अधिक हों (स्वल्पसस्य:) धान्योत्पत्तिअल्प (उत्पत्ति) होना (तरुः) वृक्ष (फलाधारः) फलों के आधार (इति) इस प्रकार (देशदोषाः) देश के दोष हैं ।। (तत्र) वहाँ (सदा) हमेशा (दुर्भिक्षम्) दुष्काल (एव) ही (यत्र) जहाँ (जलद) बादल (जलेन) जल द्वारा (सस्योत्पत्तिः) धान्योत्पन्न हो (च) और (अकृष्टभूमिः) बिना जोते भूमि में (आरम्भः) खेती की जाती है ।10॥ विशेषार्थ :- देश के निम्न गुण होते हैं - 1. प्रजा में परस्पर एक दूसरे का रक्षण करने का स्वभाव होना अथवा राजा देश की और देश-प्रजा राजा की रक्षा करे । 2. सुवर्ण, चाँदी, रत्न, हीरा, लौह, तांबा की खानों का होना, गंधक, नमक आदि खनिज पदार्थों की उत्पत्ति प्रचुर मात्रा में होती है, एवं रुपया, अशर्फी आदि तथा हाथी, बाजी, गो आदि धन परिपूर्ण हो । 3. ग्रामों की संख्या न बहुत अधिक हो और न कम ही हो, 4. जहाँ पर विविध प्रकार के आभरण, खनिज पदार्थ, अन्न नानाभांति के पशु आदि का व्यापार प्रचुर मात्रा में पाया जाता हो, 5. जो मेघ जल की अपेक्षा नहीं रखता हो, अर्थात् सिंचाई के साधन कूप, चरस, मशीन, ट्यूबैल आदि साधन हों । 6. मनुष्य और पशु जहाँ सुखपूर्वक निवास करते हों । ये सर्व एवं जहाँ पर लुहार, बढ़ई, चमार, नाई, धोबी आदि शिल्प शूद्र, छिपी, रंगरेज आदि, मशीन, कारखाने आदि हों वह देश सुख-सम्पन्न रहता है । ये सर्व देश के गुण हैं । इन गुणों से युक्त ही देश समृद्ध होता है ।8॥ इसी प्रकार देश के दोष भी निम्न प्रकार हैं :- जिनसे यह देश दुःखी रहता है :- 1. जिसका घास, पानी, | 395
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy