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नीति वाक्यामृतम्
अचिन्तितस्तु लाभो यो नियोगाद्यस्तु जायते । स कोषे संनियोज्यश्च येन तच्चाधिकं भवेत् 1164 ॥
व्यापारी बर्तन विक्रय करने को आते हैं। वे असली मूल्य से दुगुणा मूल्य पर्यन्त बेचें तो कोई बात नहीं, परन्तु इससे अधिक मूल्य लें तो उसे राजा जब्त कर ले । क्योंकि इससे अधिक मुनाफा व्यापारीजन चोरी, धोखेबाजी व अन्याय बिना नहीं ले सकते हैं । अन्याय का दमन करना राजा का कर्त्तव्य है 1165 ॥ शुक्र का भी यही अभिप्राय
है :
यदि मूलधनाद् कश्चित् द्विगुणाभ्यधिकं लभेत् । तत्तस्य मूलाद्विगुणं दत्त्वा शेषं नृपस्य हि ॥ 7 ॥
द्विगुण नफा - लाभ तक क्षम्य है इससे अधिक को राजा ग्रहण कर सकता है । 165 ||
यदि कारणवश राज्याधिकारियों में परस्पर कलह फूट हो जाय तो यह राजा के लिए सम्पदा है । कारण "घर का भेदी लंका ढाये" आपस में लड़ने से वे एक दूसरे के दोषों को प्रकट कर देते हैं । राजा को उनके अन्याय से संचित धन का लाभ होता है क्योंकि भंडाफोड़ हो जाने से राजा दण्डित करेगा इस भय से स्वयं ही चट-पट बतला देते हैं । अतः राजा को सहज ही दोनों ओर से अर्थोपलब्धि सुलभता से प्राप्त हो जाती है 1166 || गुरु विद्वान ने भी यही कहा है :
नियागिनां मिथो वादो राज्ञां पुण्यैः प्रजायते । यतस्तेषां विवादे च लाभः स्याद् भूपतेर्बहुः ॥ 11 ॥ अर्थ उपर्युक्त ही समझना चाहिए।
धनाढ्य अधिकारियों से लाभ, संग्रहयोग्य मुख्य वस्तु धान्य संचय का फल :
नियोगिषु लक्ष्मी: क्षितीश्वराणां द्वितीयः कोशः 1167 || सर्व संग्रहेषु धान्य संग्रहो महान् ।। यतस्तन्निबन्धनं जीवितं सकलप्रयासश्च ।168 ॥ न खलु मुखे प्रक्षिप्त: खरोऽपि द्रम्भः प्राण त्राणाय यथा धान्यम् ॥169 || सर्वधान्येषु चिर जीविनः कोद्रवाः 170 ॥
अन्वयार्थ :- (नियोगिषु) अधिकारियों की सम्पदा (लक्ष्मीः) सम्पत्ति ( क्षितीश्वराणाम् ) राजाओं का (द्वितीय) दूसरा (कोशः ) कोष -- खजाना है 1167 || नारद विद्वान ने भी लिखा है- यैव भृत्यगता संपत् सैव सपन्महीपतेः ।
यतः कार्ये समुत्पन्ने निः शेषस्तां समानयेत् ।।1 ॥ वही अर्थ है ।
विशेषार्थ :- अधिकारियों की सम्पदा राजा का द्वितीय कोष समझना चाहिए। क्योंकि अकस्मात् संकटकाल उपस्थित होने पर वे राजा को प्रदान कर सहायता करते हैं । 167 ||
(सर्वसंग्रहेषु) संचित योग्य वस्तुओं में ( धान्यसंग्रह : ) अनाज संचय ( महान्) उत्तम, ( यतः ) क्योंकि
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