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________________ नीति वाक्यामृतम् अतः राजा पार-बार जब उच्चपदाधिकारियों को नीचे पद पर आसीन करता है तो वे पदच्युति के भय से रिश्वत का धन आसानी से प्रदान करते हैं । यह उपाय राजा को धनवर्षण है ।।57 ।। मलीन वस्त्र को एक बार धोने से वह मलिनता नहीं छोड़ सकता । उसे बार-बार धोना आवश्यक है। इसी प्रकार रिश्वत का धन शीघ्र नहीं त्यागा जाता है । वस्त्र को पछाड़ कर या डण्डे से कूटने पर वह अपनी मलिनता को त्यागता है । इसी प्रकार राजा द्वारा बार-बार कठिन दण्ड दिये जाने पर अधिकारी-राजकर्मचारी वर्ग रिश्वत से संचित धन का परित्याग करने में प्रवृत्त होते हैं । अतः राजा को दण्ड देने में उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।। शुक्र विद्वान ने भी कहा है : यथाहि स्नानजं वस्त्रं सकृत् प्रक्षालितं न हि । निर्मलं स्यान्नियोगी च सकृद् दण्डे न शुद्धयति ॥1॥ राजा के राज्य की सुरक्षा व वृद्धि अमात्य, सचिवादि पर निर्भर करती है । जो अधिकारी (अमात्यादि) देश को पीड़ित नहीं करता अर्थात् अनुचित, अयोग्य अधिक चुंगी, टैक्स द्वारा प्रजा को कष्ट नहीं देता और अपनी बुद्धिपटुता, उद्योगशील-चातुर्य द्वारा राष्ट्र के पूर्व व्यवसाय, व्यवहार को विशेष समुनत करता है वह देश, प्रजा, सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है। अर्थात् राष्ट्र सम्बन्धी कृषि, वाणिज्य, आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि का उपाय करने में तत्पर रहता है तो देश में दारिद्रतादि उत्पन्न नहीं होते । इससे उसे धनादि के साथ प्रतिष्ठा सम्मान प्राप्त होता है 159॥ इस विषय में शक्र ने भी कहा है : यो देशं रक्षयन् यत्नात् स्व बुद्धया पौरुषेण च । निबन्धान् वर्द्धयेद्राज्ञः सवित्तं मानमाप्नुयात् ॥ अभिप्राय उपयुक्त है। नियुक्ति, उपयोगी गुण, समर्थन व अधिकारी का कर्त्तव्य : यो यत्र कर्मणि कुशलस्तं तत्र विनियोजयेत् ।।60॥न खलु स्वामिप्रसादः सेवकेषु कार्य सिद्धि निबन्धनं किन्तु बुद्धि पुरुषकारावेव ।।61॥ शास्त्रविदप्यदृष्ट कर्मा कर्मसु विषादं गच्छेत् ।62॥ अनिवेद्यभर्तु न किंचिदारम्भं कुर्यादन्य त्रापत्प्रतीकारेभ्यः ।।63॥ अन्वयार्थ:- (यः) जो (यत्र) जहाँ (कणि) कार्य करने में (कुशलः) चतुर हो (तम्) उसे (तत्र) वहीं (विनियोजयेत्) नियुक्त किया जाय । 60 ॥ (खलु) निश्चय से (स्वामी प्रसादः) राजा की प्रसन्नता (सेवकेषु) सेवकों की (कार्यसिद्धिः) सफलता की (निबन्धनम्) कारण (न) नहीं (किन्तु) परन्तु (बुद्धिः) विवेक (एवं) और (पुरुषकार:) पुरुषार्थ (एव) ही है 161 ॥ (शास्त्रविद्) ज्ञानी (अपि) भी (अदृष्टकर्मा) अपरिचित (कर्मसु) कर्मों में (विषादम्) कष्ट को (गच्छेत्) प्राप्त करता है ।।62 ॥ भृगु विद्वान ने भी कर्तव्य हीन अधिकारी के विषय में लिखा है । (भर्तुः) राजा को (अनिवेद्य) ज्ञात कराये बिना (किंचिद्) कुछ भी (आरम्भम्) प्रारम्भ (न) नहीं (कुर्यात्) करे (आपत) आपत्ति (प्रतिकारेभ्यः) का विरोध (अन्यत्र) सिवाय 11631 388
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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