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नीति वाक्यामृतम्
सकृ निष्पीडितं हि स्नानवस्त्रं किं जहाति स्निग्धताम् ।।58 ।।
देशमपीडयन् बुद्धिपुरुषकाराभ्यां पूर्वनिबन्धमधिकं कुर्वन्नर्थमानौ लभते ।।59 ।। विशेषार्थ :- (नित्यपरीक्षणम्) जांच करना (कर्मविपर्ययः) कार्य-पद परिवर्तन (प्रतिपत्तिदानम्) बहुमूल्य पारितोषिक प्रदान (नियोगिष) अधिकारियों में (अर्थोपायः) अर्थ प्राप्ति का उपाय 1155॥ (अपीडितः) कष्ट दिये बिना (नियोगिनः) अधिकारी वर्ग (दुष्टाः) पके (वृणाः) फोड़े (इव) समान (अन्त:सारम्) अन्तरंगसार को (उद्वमन्ति) उगलते (न) नहीं हैं 156॥ (पुन:-पुनः) बार-बार (अभियोगे) उच्च-पद में (नियोगिषु) अधिकारियों (भूपतीनाम्) राजाओं को यह (वसुधारा:) धनवृष्टि [अस्ति] है ।157 ।। (सकृत्) एक बार (निष्पीडितम्) निचोड़ा (स्नानवस्त्र) स्नान का वस्त्र (हि) निश्चय से (किम्) क्या (स्निग्धताम्) मलिनता को (जहाति) त्यागता है ? 1158 ।। (देशम्) देश को (अपीडियन्) पीड़ा न देता हुआ (बुद्धिपुरुषकाराभ्याम्) ज्ञान और सम्मान द्वारा (पूर्वनिबन्धम्) पहली व्यवहारता को (अधिकम्) उन्नात (कुर्वन्) करता हुआ (अर्थम्) धन (च) और (मानम्) सम्मान (लभते) प्राप्त करता है ।159॥
विशेषार्थ :- राजाधिकारी रिश्वत लेना कर्तव्य समझते हैं । नीतिज्ञ राजा उस घसखोरी के धन को उनसे ग्रहण करने का प्रयत्न करता है । वह तीन प्रकार से उस अर्थ लाभ को करता है - 1. नित्यपरीक्षा - प्रतिदिन उनके कर्त्तव्य पर कडी दृष्टि रखने से एवं कठोर दण्ड देने से । 2. कर्म विपर्ययः - अपराध प्रत्यक्ष होने पर उसे उच्च पद से निम्न पद पर नियुक्त कर । क्योंकि पढानि के भय से घूस लेंगे नहीं और लिया भी तो राजकोष में जमा करा देंगे। 3. प्रतिपत्तिदान - अधिकारियों ।। त्र, चमरादि बहुमूल्य वस्तुएँ भेंट में देना, जिससे वे प्रसन्वन होकर स्वामी को रिश्वत का धन बता देंगे 11 इस प्रकार के उपायों से राजा रिश्वत का धन निकलवा सकता है। गुरु विद्वान ने भी कहा है :
छिद्रान्वेषणतो लाभो नियोगिजनसम्भवः । अधिकारविपर्यासात् प्रतिपत्तेस्तथापरः ।।1155 ।।
अधिकारी जन दुष्ट पके सड़े फोड़े को भौति होते हैं । जिस प्रकार पके फोड़े को दबाये बिना उसका मलपीवादि बाहर नहीं निकलता उसी प्रकार अधिकारीजन ताड़न, बन्धन आदि बिना घर में स्थापित घूस के धन को नहीं बताते हैं । जिस प्रकार दूषित फोड़े को शस्त्रादि से छेदन-भेदन करने से उसका पीव-रक्तादि बाहर निकलता है । उसी प्रकार दुष्ट राज कर्मचारियों को भी ताड़ना देने से ही रिश्वत से संचित धन निकलता है ।। अतः राजा को दण्ड प्रयोग करना चाहिए ।।56 1 नीतिकार चाणक्य ने भी कहा है :
शान्त्याधिकारिणो वित्तमन्तः सारं वदन्ति नो । निपीड्यन्ते न ते यावद्गाळ दुष्टवृणा इव ॥
वही अर्थ है । संसार में प्रत्येक व्यक्ति पदाधिकारी रहना चाहता है । पदच्युति से तो वह और अधिक आकुलित होता है।
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