________________
नीति वाक्यामृतम्
करना चाहिए 150 1। राजा के राजतन्त्र संचालनार्थ निम्न पाँच करण या कुल हैं - 1. आदायक - व्यापारियों से दुगी, रेहार द्रव्य वसूल कर राजकोष में जमा करने वाला कोषाध्यक्ष, 2. निबन्धक - उक्त उपाय द्वारा प्राप्त द्रव्य व माल का हिसाब जो बहीखाते में लिखता है । 3. प्रतिबंधक - जो चुंगी आदि के माल पर या खजाने में जमा होने वाली वस्तुओं पर राजमुद्रा की छाप लगाता है । 4. नीवी-ग्राहक - राजकीय द्रव्य को राजकोष में जमा करने वाला - खजांची । 5. राजाध्यक्षः - उक्त चारों अधिकारियों की देख-रेख रखने वाला प्रधान पुरुष 11511
राजशासकीय आय में से उपयुक्त व्यय करने के अनन्तर जो कुछ शेष रहता है, और जांच-पड़ताल पूर्वक खजाने में जमा की हुई सम्पत्ति को "नीवी" कहते हैं 1521 राजा को चाहिए कि वह कोषाध्यक्ष से 'नीवी' को जमा करने वाले बही-खाते मंगवाकर उनकी व्यवस्थित रूप से देखभाल करे । विशुद्ध करे अर्थात् आय-व्यय को विशुद्ध करे 153 ॥ किसी नीतिकार ने भी राजकीय सम्पत्ति की आय-व्यय शुद्धि के विषय में इसी प्रकार लिखा
शुद्ध पुस्तक हस्ते यत् पुस्तकं समवस्थितम् । आयव्ययौ च तत्रस्थौ यौ तौ वित्तस्य शुद्धिदौ ।।
जिस समय सम्पत्ति की आय-व्यय के सम्बन्ध में अधिकारियों के मध्य यदि विवाद उपस्थित हो जाय अर्थात् समान शक्ति वाला विरोध आ खड़ा हो तो राजा को जितेन्द्रिय, राजनीतिज्ञ प्रधान पुरुषों मंत्री आदि से विचार-परामर्श । करके उसका निर्णय कर लेना चाहिए । अभिप्राय यह है कि किसी अवसर पर कारणवश राज्य में टैक्स-आदि द्वारा होने वाली सम्पत्ति की आमदनी बिल्कुल रुक गई हो और धन का व्यय अधिक हो रहा हो, जो कि अवश्य करने योग्य प्रतीत हो जैसे शत्रुकृत हमले के समय राष्ट्ररक्षार्थ सैनिक शक्ति के बढ़ाने में अधिक और आवश्यक खर्च । इस प्रकार के अवसर पर यदि अधिकारियों में आय-व्यय सम्बन्धी विवाद उपस्थित हो जाए, तो राजा को सदाचारी व राजनीतिज्ञ शिष्ट पुरुषों का कमीशन बिठाकर उक्त विषय का निश्चय कर लेना चाहिए । अर्थात् यदि महान् प्रयोजन सिद्धि (विजय) होती हो तो आमदनी से अधिक खर्च करने का निश्चय कर लेना चाहिए । अन्यथा नहीं ।।54 ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
यदा विप्रतिपत्तिश्च करणस्य प्रजायते ।
प्रवेशे निष्क्रिये वापि साधुभ्यो निश्चयं कुर्यात् ।1।। रिश्वत से संचित धन का उपाय पूर्वक ग्रहण व अधिकारियों को धन व प्रतिष्ठा की प्राप्ति :
नित्य परीक्षणं कर्म विपर्ययः प्रतिपत्तिदानं नियोगिष्वर्थोपायाः ।।5।। नापीडिता नियोगिनो दुष्टवणा इवान्तः सारमुद्वमन्ति ।।56॥ पुनः पुनरभियोगे नियोगिषु भूपतीनां वसुधाराः ।।57 ॥
386