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________________ नीति वाक्यामृतम् इसी का दृष्टान्त, अधिकारियों की लक्ष्मी, समृद्धों के दोष : मार्जारेषु दुग्धरक्षणमिव नियोगिषु विश्वास करणम् ||44 ॥ ऋद्धिश्चित विकारिणी नियोगिनामिति सिद्धानामादेशः 1145 ॥ सर्वोप्यति समृद्धोऽधिकारीभवत्यायत्यामसाध्यः कृच्छ्रसाध्यः स्वामिपदाभिलाषी ar 1146 ॥ भक्षणमुपेक्षणं प्रज्ञाहीनत्वमुपरोधः प्राप्तार्था प्रवेशो द्रव्यविनिमयश्चेत्यमात्य दोषाः 147 ॥ अन्वयार्थ :- ( मार्जारेषु) विडालों को (दुग्धरक्षणम्) दूध की रक्षा को नियुक्ति (इव) समान ( नियोगिषु) मंत्री आदि पर (विश्वास) विश्वस्त (करणम्) रहना चाहिए 1144 | (नियोगिनाम्) मन्त्री आदि की (ऋद्धिः) सम्पदा (चित्तविकारिणी) मन को दूषित करने वाली (इति) ऐसा (सिद्धानाम् ) प्रामाणिकों की (आदेश) आज्ञा है 1145 | ( सर्वो: ) सभी (अधिकारी) राजपदाधिकारी (अतिसमृद्धा:) अधिक बलवान (अपि) भी (आयात्याम्) अवश ( असाध्यः) दुर्दमनीय (कृच्छ्रसाध्यः) कठिनसाध्य (वा) अथवा (स्वामिपदाभिलाषी) राजा के राजपद के अभिलाषी (भवति) होता है 1146 | ( भक्षणम्) राजद्रव्य खाना (उपेक्षणम्) राजकीय क्षति की उपेक्षा ( प्रज्ञाहीनत्वम्) बुद्धि का अभाव (उपरोधः ) दुराग्रह ( प्राप्तार्थ : ) टैक्सादि से प्राप्त धन का (अप्रवेश:) कोष में जमा न करना (च) और (द्रव्यविनिमयः) अधिक मूल्य वाली वस्तु को कम में देना (इति) ये ( अमात्यदोषाः) मन्त्री के दोष [ भवन्ति ] होते हैं 1147 विशेषार्थ :- जिस प्रकार दुग्ध की सुरक्षा को बिल्ली को नियुक्त करना विश्वास योग्य नहीं, उसी प्रकार अयोग्य मन्त्री, पुरोहितादि को राजसत्ता रक्षणार्थ नियुक्ति करना भी है। अर्थात् राजा को समस्त राजभार ऐसे मंत्री आदि कर्मचारियों पर नहीं छोड़ना चाहिए ।। क्योंकि राजकोषादि की रक्षा उनसे नहीं हो सकती । उनकी सतत् परीक्षा करनी चाहिए | 144 || भारद्वाज ने भी कहा है : मार्जारेष्विव विश्वासो यथा नो दुग्धरक्षणे । नियोगिनां नियोगेषु तथा कार्यो न भूभुजा ॥1॥ अर्थ वही है ।। " अर्थो मूलोऽनर्थानाम्" युक्ति के अनुसार सम्पत्ति पाकर अधिकारी वर्ग उन्मत्त हो जाते हैं चित्त विभ्रम हो जाता है । नारद ने भी कहा है : तावन्न विकृतिं याति पुरुषोऽपि कुलोद्भवः । यावत्समृद्धि संयुक्तो न भवेदत्र भूतले ।।1 ॥ अर्थात् पृथ्वी पर कोई पुरुष कुलीन होकर भी तब तक ही सीधा रहता है जब तक धन की गरमी नहीं आती । धनाढ्य होते ही कुलीन भी गर्विष्ठ हो जाता है ।। अतएव राजा को इस ओर ध्यान रखना चाहिए 1145 ॥ समस्त राजपदाधिकारियों का एक समान प्रायः आचरण होता है। ये धनेश्वर होते ही राजा के वश में नहीं रहते, अथवा वशवर्ती करना कठिन हो जाता है या उसके पद (राज) को पाने के इच्छुक हो जाते हैं । 146 || नारद विद्वान ने भी कहा है : 383
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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