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________________ नीति वाक्यामृतम् अति समृद्धि संयुक्तो नियोगी यस्य जग्यते । असाध्यो भूपतेः स स्यात्तस्यापि पदवाञ्छ्कः ॥ ॥ इस विषय में विद्वान गुरु का कथन विशेष महत्वपूर्ण हैं : प्रेष्याः कर्मसुपटवः पूर्णा अलसा भवन्ति ये भृत्याः । तेषां जलौकसामिव पूर्णा नैवात्र ऋद्धता न्याय्या ॥11 ॥ अर्थ :- जो राज-सेवक कर्त्तव्यनिपुण, धनी व आलसी होते हैं उनका जोंक के समान पूर्ण सम्पत्तिशाली होना न्याय युक्त नहीं, दरिद्रता ही उनकी शोभा है । संक्षेप में कहें कि जिस प्रकार जोंक विषाक्त विकारी रक्त को भरपेट पान कर फट् जाती हैं उसी प्रकार क्षुद्र, कर्त्तव्यविहीन प्रमादी सेवक भी अत्यन्त धनाढ्य होने पर उन्मत्तमदान्ध होकर अपने ही स्वामी के विपरीत अथवा घातक हो जाते हैं । अस्तु उनका दरिद्र बना रहना ही उचित 1146 || जिस पुरुष में 6 दोष पाये जायें वह राज- सेवक या राजसत्ता पदाधिकारी नियुक्त नहीं करना चाहिए । वे दोष इस प्रकार है : भक्षण-राजकीय धन खा जाने वाला, 2. उपेक्षण राजकीय सम्पत्ति को नष्ट करने वाला अथवा धन प्राप्ति में अनादर व विघ्न करने वाला, 3. प्रज्ञाहानत्व जिसकी मति नष्ट व भ्रष्ट हो गई हो अथवा जो राजनैतिक ज्ञान शून्य मूर्ख है, 4. उपरोध प्रभावहीन अर्थात् राजशासन के विरुद्ध चलने वालों को रोकने पर भी जिसके द्वारा रोके न जा सकें ऐसा प्रभावहीन, शत्रु दमन में असमर्थ । 5. प्राप्तार्था कोष - खजाने में जमा नहीं कराने वाला। अर्थात् टैक्सादि उपायों से प्राप्त धन कोष में न द्रव्य विनिमय - राजाज्ञा विरुद्ध बहुमूल्य वस्तुओं को अल्पमूल्य की वस्तु कर विक्रय कर दे या करा दे । अर्थात् सुवर्ण सिक्के, रजत सिक्कों को स्वयं रखकर राजकोष में उनके बदले अल्पमूल्य के सिक्के जमा करा दे । अथवा चला देने में प्रयत्नशील हो । सारांश यह है कि जो राजा या प्रजा उक्त दोषयुक्त पुरुष को अर्थ मंत्री या सचिव बनाता है तो वह राज्य को नष्ट कर देता है । 147 ॥ शुक्र विद्वान ने भी लिखा है प्रवेश प्राप्त हुए धन को भेजे, जमा न करावे । 6. - वही अर्थ है । - - योऽमात्यो राजकीयं स्वं बहुधा विप्रकारयेत् । सदैव दुष्टभावेन स त्याज्यो सचिवो नृपैः ॥ 7 ॥ 384 अर्थ :- जो अमात्य दुष्ट प्रकृतिवश राजकीय धन अनेक प्रकार से नष्ट कर डालता है वह राजा द्वारा त्याज्य है ।1 ॥ अतः राजा को इस विषय में सावधान रहना चाहिए 1147 राजतन्त्र स्वयं देख-रेख योग्य, अधिकार, राजतन्त्र व नीवि लक्षण, आय-व्यय शुद्धि और उसके विवाद में राजकर्त्तव्य : बहुमुख्यमनित्यं च करणं स्थापयेत् | 48 ॥ स्त्रीष्वर्थेषु च मनागप्यधिकारे न जाति सम्बन्धः 1149 || स्व पर
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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