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________________ नीति वाक्यामृतम् विशेषार्थ :- जो मन्त्री या पदाधिकारी राजा के प्रसन्न होने पर भी अहंकार नहीं करता वह बहुत समय तक आनन्दानुभव करता है. ।। अर्थात् वह कभी भी पदच्युत नहीं होता, कीर्ति, अर्थलाभ और सम्मान की वृद्धि करता है ।। शुक्र विद्वान ने भी कहा है : स्वामि मामासाना नई सोचः ।। स नन्दति चिरंकालं भ्रश्यते नाधिकारतः ॥1॥ राजा को उन अधिकारियों से क्या प्रयोजन, जिनके रहते हुए भी राजा को कष्ट उठाना पड़े - स्वयं राजकार्य करने पड़ें। अथवा स्वयं कर्तव्यपालन कर सुख प्राप्त करना पड़े ? कुछ भी लाभ नहीं । सारांश यह है कि राजा को यदि स्वयं राज-काज का भार वहन करना पडे. तो मंत्री. सचिवों से क्या प्रयोजन? अधिकारियों को ड्यटिफलकर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए ।। स्वामी को कोई कष्ट न उठाना पड़े और वह सुखानुभव करे। जिस प्रकार स्वयं अरण्य से भार लेकर आने वाला गज उस पत्ते-घास को खाकर सुखी नहीं हो सकता उसी प्रकार राजकीय-शासनकार्यों का भार ढोने वाला राजा भी सुखी नहीं हो सकता। अतएव विजीगिषु राजा को योग्य राजाधिकारी व सेवकों को नियुक्ति करनी चाहिए। तभी प्रजा-राज सम्बन्धी समस्त कार्य सुचारु ढंग से चल सकेंगे, जिससे राजा और प्रजा सुखी होगी । अन्यथा नहीं 141-42 ॥ नारद ने भी कहा है : स्वयमाह त्य भुंजाना बलिनोऽपि स्वभावतः । नरेन्द्राश्च गजेन्द्राश्च प्रायः सीदन्ति केवला: 111॥ क्षुद्र प्रकृति वाले अधिकारीजनों को अपने-अपने अधिकारों में नियुक्त किये हुए सैन्धव जाति के घोड़ों के समान विकृत मदोन्मत्त हो जाते हैं । अर्थात् जिस प्रकार सैंधव जाति के अश्व योग्यता प्राप्त कर लेने पर (चाल आदि में निष्णात होने पर) दमन करने पर अवश हो जाते हैं । उन्मत की भांति चेष्टा करते हैं ! सवार को ही धराशायी भी कर डालते हैं । इसी प्रकार क्षुद्र प्रकृति वाले गर्वान्वित होकर राज्यक्षति में तत्पर हो जाते हैं । राजा ही को धोखे में डाल देते हैं । अत: राजा को इस प्रकार के लोगों की सतत् जांच पड़ताल करते रहना चाहिए 143 || वादरायण और भग विद्वानों ने भी लिखा है: अश्वा यथा विकुर्वन्ति दान्ता अपि च सैन्धवाः । तथाप्यपुरुषा ज्ञेया येधिकारे नियोजिताः ॥1॥ वादरायण परीक्षा भूभुजा कार्या नित्यमेवाधिकारिणाम् । यस्मात्ते विकृति यान्ति प्राप्य सम्पदमुत्तमाम् ॥ सभी का एक ही अभिप्राय है कि इस प्रकार क्षुद्र एवं दुष्ट पुरुषों से सदैव सावधान रहे राजा और उनकी परीक्षा भी करता रहे 143 ॥ 382
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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