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नीति वाक्यामृतम्
गया, परन्तु अन्तःकरण में यह राजा का शत्रु था, यह उसके घात की प्रतीक्षा कर रहा था । अतः अवसर पाकर यह सम्राट् चन्द्रगुप्त के प्रधान अमात्य चाणिक्य से मिल गया और उसकी सहायता से इसने अपने स्वामी राजा नन्द को मरवा डाला । 37॥
मित्र को अमात्य आदि अधिकारी बनाने से राजकीय-धन व मित्रता की क्षति होती है । अर्थात मित्र अधिकारी राजा को अपना मित्र समझकर निर्भयतापूर्वक उच्छृखल होकर उसका धन खा लेता है । जिससे राजा उसका वध कर डालता है । इस प्रकार मित्र को अधिकारी बनाने से राजकीय धन व मित्रता दोनों का नाश होता है । अत: मित्र को अधिकारी नहीं बनाना चाहिए 188 ।। रैम्य विद्वान ने भी कहा है :
नियोगे संनियुक्तस्तु सुहद् वितं प्रभक्षयेत् । स्नेहाधिक्येन निःशंकस्ततो वधमवाप्नुयात् ॥1॥
इसी प्रकार मूर्ख मूढ़ अज्ञानी व्यक्ति को अर्थ व राज सचिव बनाने पर राज्य देश धन व यश का सर्वनाश होता है। अथवा इनकी प्रासि सुदुर्लभ हो जाती है । क्योंकि मूर्ख अधिकारी से राजा को धर्म मार्ग निर्देशन नहीं मिलता, न धनार्जन ही हो सकता है और न ही यशोपलब्धि ही सुनिश्चित हो पाती है । दो बातें निश्चित होती हैं - 1. स्वामी को आपत्ति में फंसाना और 2. राजा को नरक में ले जाना । अर्थात् मूर्ख अधिकारी ऐसे दुष्कृत्य कर बैठता है जिससे उसका स्वामी आपद् ग्रस्त हो जाता है। एवं ऐसे दुष्कर्म कर डालता है, जिससे प्रजा पीड़ित होती है । जिसके फलस्वरूप स्वामी नरक प्रयाग करता है ।39॥ नारद विद्वान ने मूर्ख को अधिकारी बनाने का निम्न चित्रण किया है :
मूर्खे नियोगयुक्ते तु धर्मार्थयशसां सदा ।
सन्देहोत्र पुनमूनमनर्थो नरके गतिः ।।1। अधिकारियों की उन्नति, उनकी निष्फलता, राजा की हानि :
सोऽधिकारी चिरं नन्दति स्वामिप्रसादो नोत्सेकयति 1140॥ किं तेन परिच्छदेन यत्रात्मक्लेशेन कार्य सुखं वा स्वामिनः 141 ॥ का नाम निवृत्तिः स्वयमूढ़तृणभोजिनो गजस्य 142॥अश्वसर्धाणः पुरुषाः कर्मसु नियुक्ता विकुर्वते तस्मादहन्यहनि तान् परीक्षेत् 143॥
___अन्वयार्थ :- [य:] जो (अधिकारी) मंत्री, पुरोहित (स्वामिप्रसादः) राजा के प्रसन्न होने से (न उत्सेकयति) अभिमानी नहीं होता (सः) वह (चिरम्) बहुत काल (नन्दति) प्रसन्न रहता है 140 ॥ (तेन) उस (परिच्छदेन) राज्याधिकारियों से (किम्) क्या (यत्र) जहाँ (आत्मक्लेशेन) स्वयं पीड़ित हो (कार्यम्) काम (वा) अथवा (स्वामिनः) राजा को (सुखम्) सुख हो 141 ॥ (का नाम) क्या (निवृत्तिः) निश्चितता (स्वयं) स्वतः (मूढतृणभोजिनः) गूर्ख हाथी, घास खाने वाला (गजस्य) हाथी के प्रयास के समान 142 || (अश्वः) घोटक (सर्धाण:) उन्मत्त (पुरुषाः) पुरुष (कर्मसु) कार्य में (नियुक्तः) लगाना (नियुक्ता) पदाधिकारी (तस्मात्) इसलिए । (अहनि-अहनि) प्रतिदिन (तान्) उन्हें (परीक्षेत्) परीक्षित करे ।।43 ।।
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