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________________ नीति वाक्यामृतम् होने पर भी जाविसमाव के कारण ग्रह किया हुआ धन महान प्रयत्न से देता है अथवा नहीं भी देता है 123॥ सारांश यह है कि धन लम्पटता व कातरता ब्राह्मण जाति का स्वाभाविक दोष है । अतः उससे गृहीत राजधन की प्राप्ति अति दुर्लभ है । अतः ब्राह्मण को अधिकारी बनाना योग्य नहीं है ।23 ॥ क्षत्रिय का स्वभाव संग्राम करना है । क्षत्रिय अधिकारी होने पर विरुद्ध हुआ तो तलवार दिखलाता है । सारांश यह है कि क्षत्रिय अधिकारी द्वारा ग्रहण किया गया धन शस्त्र प्रहार किये बिना प्राप्त होना दुर्लभ है ।। वह तलवार चलाये बिना शान्त नहीं होता । अतएव उसे पदालंकृत नहीं करना चाहिए । सेना में ही रखने योग्य होते हैं ये 124 ।। यदि राजा अपने भाई-बन्धु कुटुम्बी मंत्री आदि पद पर नियुक्त होता है तो वह इस अहंभाव से कि "मैं राजा का सम्बन्धी हैं" अन्य कर्मचारियों को तुच्छ समझता है । उनके साथ व्यवहार कर समस्त राजधन स्वयं ही हड़प लेगा । अर्थात् सम्पूर्ण अधिकारियों को सताता है । अर्थात् अन्य अधिकारियों को तिरस्कृत कर स्वयं बलिष्ठ हो जाता है ।25 || बन्धु तीन प्रकार के होते हैं :- 1. श्रौत, 2. मौख्य और 3. यौन 1 1126 । जो व्यक्ति राजा की राजगद्दी समारोह के साथ ही अमात्य-पद की जिसे प्राप्ति हुई है । अर्थात् जिस प्रकार राजकुमार को अपनी वंश परम्परानुसार राज्यसम्पदा प्राप्त होती है उसी प्रकार कुल परम्परा से मन्त्री पद जिसे अपने पितामह व पिता भी इस पद पर रह चुके हैं और अब इसे प्राप्ति हुई है, अथवा राजा का सहपाठी रहा हो-विद्याध्ययन राजा के साथ किया हो वह श्रौतबन्धु कहलाता है 127 ॥ जो ओरल (मौखिक) वार्तालाप व सहवास आदि के निमित्त से राजा का अभिन्न मित्र रह चुका है उसे "मौख्य" बन्धु कहते हैं । बोल-चाल की भाषा में "मुंह लगा" कहा जा सकता है । 28 || राजा के सहोदर, चाचा वगैरह “यौन" बन्धु कहलाते हैं 129॥ जो राजा के साथ राजगद्दी-राजतिलक से पूर्व मित्र हो चुका है, अधिक सहवास कर चुका हो, वार्तालाप में निसंकोच हो चुका है, ऐसे घनिष्ठ मित्रों को भी अन्य पदासीन नहीं करना चाहिए । क्योंकि वे राजाज्ञा का उलंघन कर सकते हैं । इसके कारण राजा की प्रतिष्ठा कम होगी । अतः मित्र को भी मंत्री पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए | 30 मित्र को भी मंत्री पद पर नियुक्त होने के अयोग्य व्यक्ति : न तं कमप्यधिकुर्यात् सत्यपराधे यमुपहत्यानुशयीत ।।31॥ मान्योऽधिकारी राजाज्ञामबजाय निरवग्रहश्चरति ॥32॥ चिर सेवको नियोगी नापराधेष्याशङ्कते ।।33॥ उपकर्ताधिकारस्य उपकारमेव ध्वजीकृत्य सर्वमवलुम्पति ॥4॥ सहपांशु क्रीडितोऽमात्योऽतिपरिचयात् स्वयमेव राजायते 135 ॥ अन्तर्दुष्टो नियुक्तः सर्वमनर्थमुत्पादयति 186 ॥ शकुनि-शकटालावत्र दृष्टान्तौ 107॥ सुहृदि नियोगिन्यवश्यं भवति धनभित्रनाशः ।।38 ॥ मूर्खस्य नियोगे भतुर्धर्मार्थयशसां संदेहो निश्चिती वानर्थ-नरकपातौ ॥ अन्वयार्थ :- (तम्) उस व्यक्ति को (कमपि) किसी प्रकार भी (अधि:) अधिकारी (न कुर्यात्) नहीं बनाये (यम्) जिसको (अपराधे) अपराध (सति) होने पर (उपहत्य) दण्डित कर (अनुशयीत) पश्चाताप करना पड़े IB1 ॥ (मान्य) राजा द्वारा पूर्वमान्य पुरुष (अधिकारी) अधिकारी हो तो (राजाज्ञाम्) राजा की आज्ञा की (अवज्ञाय) तिरस्कृति कर (निरवग्रहः) निरंकुश (चरति) आचरण करता है ।B2 (चिरसेवकः) पुराना सेवक (अपराधेषु) दोष करने पर भी (नियोगी) पदासीन रहने में (नाआशङ्कते) आशंका नहीं करता । 33 ॥ (उपकर्ता) उपकारी पुरुष को (अधिकारस्य) अधिकार के मिलने पर (उपकारम्) उपकार को ही (ध्वजीकृत्य) प्रमुख कर (सर्वम्) धनादि 378
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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