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________________ नीति वाक्यामृतम् को (अवलुम्पति) हड़प जाता है ।।34 ॥ (सह) साथ-साथ (पांशुक्रीडितः) धूलि में खेला (अमात्यः) अमात्यपद, पाकर (अतिपरिचयात्) अत्यन्त निकट का परिचय होने से (स्वयमेव) स्वयं ही (राजायते) राजा का आचरण करता है 135 ॥ (अन्तर्दुष्टः) अन्त:करण में कालुष्य वाला व्यक्ति (नियुक्तः) राज पद कर्मचारी हो तो (सर्वम्) सम्पूर्ण (अनर्थम्) अपायों को उत्यापति) उत्पन्न करता है .10:1 (अत्र) इस विषय में (शकुनिः) शकुनि (शकटालः) शकटाल (दृष्टान्तौ) उदाहरण हैं ।B7 ॥ (सुहृदि) मित्र (नियोगिनि) पदासीन होने पर (अवश्यम्) अवश्य (धनमित्रनाश:) धन और मित्र नाश (भवति) होता है ।।38॥ (मूर्खस्य) मूर्ख के (नियोगे) पदाधिकारी होने पर (भर्तुः) स्वामी-राजा का (धर्मः) धर्म (अर्थ:) अर्थ (यशताम्).यश (सन्देह:) शंकित होते हैं (च) और (अनर्थ:) अनर्थ एवं (नरकपातः) नरकगति [भवति होती है । 39॥ विशेषार्थ :- उपर्युक्त तीनों प्रकार के बन्धुओं में से किसी को भी अर्थ मंत्री, आदि अधिकारी नहीं बनाना चाहिए ॥ जिसे अपराध करने पर कठोर दण्ड देने पर पश्चाताप करना पड़े 131॥ गुरु विद्वान ने भी कहा है - सम्बन्धिनां त्रयाणां च न चैकमपि योजयेत् ।। अर्थाधिकारे तं चापि यं हत्वा दुःखमाप्नुयात् ॥ अर्थात् तीनों प्रकार के बन्धुओं में से किसी को भी अर्थ-सचिव नहीं बनाना चाहिए । क्योंकि कठोर अपराध का कठोर ही दण्ड देना पड़ता है । दुष्कृत्य करने पर मृत्यु दण्ड देकर पश्चाताप करना पड़ेगा । अत: उसे अति निकटवर्ती को अर्थ सचिवादि पदों पर नियुक्त नहीं करना चाहिए 131॥ नृपराज को अपने पूज्य पुरुषों को पदाधिकारी नहीं बनाना चाहिए । क्योंकि वह अपने को राजा द्वारा पूज्यमाननीय समझ कर उच्छृखल प्रवृत्ति करेगा । राजाज्ञा का उल्लंघन करेगा । राजधन अपहरण आदि मनमानी प्रवृत्ति करेगा । इससे राजकीय अर्थक्षति स्वाभाविक है ।।32 ॥ 'नारद' ने भी कहा है : मान्योऽधिकारी मान्योऽहमिति मत्वा न शकते । भक्षयन् नृप वित्तानि तस्मात्तं परिवर्जयेत् ॥ मैं बड़ा, मैं पूज्य मानकर वह राजधन का भक्षण करता हुआ निःसंकोच निर्भय आचरण करेगा इसलिए पूज्य परुषों को राजा अपना अर्थमंत्री आदि पद नहीं देवे 111 1321 बहत दिनों से सेवक चला आया परु प्रभृति पदों पर आसीन होगा तो वह भी निःसंकोच सूक्ष्म-स्थूल वस्तुओं का निसंकोच अपहरण कर राज क्षति, प्राण क्षति उत्पन्न कर देगा ।। अतः राजा अतिपरिचित को पदाधिकारी न बनावे ।।3। देवल विद्वान ने भी कहा है - चिर भृत्यं च यो राजा वित्तकृत्येषु योजयेत् । स वित्तं भक्षयन् शङ्का न करोति कथंचन . उपर्युक्त ही अर्थ है ।। जो भूपति अपने उपकारी को अधिकारी पद पर नियुक्त करता है वह (अधिकारी) पूर्वकृत उपकार राजा । 379
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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