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-नीति वाक्यामृतम् वल्कलं हषदोयद्वत् कृपणेन हृतं धनम् । यतस्तन्न प्रलभ्ये त् तस्मात्तं दूरतस्त्यजेत् ।।
अर्थ वही है ।
योग्य-अयोग्य अधिकारी, अयोग्यों से हानि, बन्धु-भेद व लक्षण :
सोऽधिकारी यः स्वामिनासति दोषे सुखेन निगृहीतुं शक्यते ।21॥ ब्राह्मण-क्षत्रिय-सम्बन्धिनो नकुर्यादधिकारिणः ॥22॥ब्राह्मणोजाति वशासिद्धमप्यर्थ कृष्ण प्रयच्छति, न प्रयच्छति वा ।।23॥ क्षत्रियो अभियुक्तः खड्ग दर्शयति ।।24। सम्बन्धी ज्ञातिभावेनाक्रम्य सामवायिकान् सर्वमप्यर्थ ग्रसते 125॥ सम्बन्धस्त्रिविधः श्रीतो, मौख्यो यौनश्च ॥26॥ सहदीक्षितः सहाध्यायी वा श्रीतः 1127 ॥ मुखेन परिज्ञातो मौख्यः ॥28॥ यौनेजर्जातो यौनः 129॥ वाचिकसम्बन्धे नास्ति सम्बन्धान्तरानुवृत्तिः ॥30॥ अन्वयार्थ कहा जाता है :
अन्वयार्थ :- (अधिकारी) पदासीन (सः) वह है (य:) जो (सति दोषे) अपराध होने पर (स्वामिना) राजा द्वारा (सुखेन) सरलता से (निगृहीतुम्) दण्डित करने में (शक्यते) समर्थ हो ।॥21॥ (ब्राह्मणः) विप्र (क्षत्रियः) क्षत्रिय (सम्बन्धन:) बन्धु, बान्धवों को (अधिकारिणः) अधिकारी-पदधारी (न कुर्यात्) नहीं बनाना चाहिए 122 ॥ (ब्राह्मणः) ब्रामण (जाति:) जाति (वशात्) स्वभाव से (सिद्धम्) ग्रहण (अपि) भी (अर्थम्) धन को (कृच्छ्रेण) कष्ट से (प्रयच्छति) देता है (वा) अथवा ( प्रयच्छति) नहीं देता है ।।23 ॥ (क्षत्रियः) क्षत्रिय (अभियुक्तः) विरोधी हुआ (खड्गम) तलवार (दर्शयति) दिखाता है 1241 (सम्बन्धी) बन्धुजन (ज्ञातिभावेन) जातीय भाव से -"मैं राजा की जाति का हूँ" इस अहं भाव से (सामवायिकान्) सहयोगियों के (सर्वम्) सम्पूर्ण (अपि) भी (अर्थम्) धन को (ग्रसते) लील-निगल जाता है 125 ॥ (सम्बन्धः) सम्बन्ध (त्रिविध:) तीन प्रकार (श्रौत:) श्रौत (मौख्यः) मौख्य (च) और (यौनः) यौन ।26 ।। (सहदीक्षितः) साथ दीक्षित (वा) अथवा (सहाध्यायी) साथ में पढ़ने वाला (श्रौत:) श्रौत [अस्ति) है ।27॥ (मुखेन) मौखिक (परिज्ञातः) परिचित (मौख्यः) मौख्य वन्धु [अस्ति] है ।28। (यौने) योनी में (जातः) उत्पन्न हुआ (यौनः) यौन [अस्ति] है 129 (वाचिक) वच्चन से (सम्बन्धे) सम्बन्ध होने पर (सम्बन्थान्तरः) अन्य सम्बन्ध (अनुवृत्तिः) प्रवृत्ति (नास्ति) नहीं होती है 1001
विशेषार्थ :- मन्त्री आदि अधिकारी वही बनने योग्य होता है, जो अपराध करने पर राजा द्वारा सरलता से दण्डित किया जा सके ।21 |नीतिकार ने भी कहा है:
सोऽधिकारी सदा शस्यः कृत्वा दोषं महीभुजे ।
ददाति याचितो वितं साम्नाय समवल्गुना ॥ अर्थ :- अधिकारी वही प्रशंसनीय है जो अपराध करके, राजा द्वारा दिये दण्ड को सरलता से स्वीकार कर सदनुसार धनादि प्रदान करे ।। अभिप्राय यह है कि पदाधिकारियों को सरल होना चाहिए 121॥
ब्राह्मण क्षत्रिय व बन्धुजनों को अमात्यादि पदों पर नियुक्त नहीं करना चाहिए । 22 || क्योंकि ब्राह्मण अधिकारी
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