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नीति वाक्यामृतम् ।
जो मन्त्री आय तो स्वल्प करे और व्यय अधिक तो निसंशय वह स्वयं मूल धन का भक्षी समझना चाहिए ।16॥
व्यय की अपेक्षा अल्प आय-आमदनी करने वाला मंत्री देश व राज परिवार को पीड़ित करता है । क्योंकि दारिद्रय कष्ट दायक होता है ।।17। गर्ग विद्वान का उद्धरण विचारणीय है :
अल्पायमुखमेवान मन्त्रिणं प्रकरोति यः । तस्य राष्ट्रं यं याति तथा चैव परिग्रहः ॥ परिवार ।
अर्थ वही है । राजा को दूरदर्शी होना चाहिए ।। दूर देश से आये हुए अनजान व्यक्ति की वाह्य टीम-टाम या चतुराई देखकर उसे कोषाध्यक्ष या प्राणरक्षक मंत्री पदासीन नहीं करना चाहिए । कारण अवसर प्राप्त कर वह : को जा सकता है । दूसरी बात यह है कि उसे राजा व प्रजा के प्रति यथार्थ भक्ति व सहानुभूति होना शक्य नहीं। मौका पाकर राजद्रोही भी हो सकता है । अतः कोष सचिव, सेना सचिव, महामात्य अपने ही देश के योग्य व्यक्ति को बनाना चाहिए 118 || शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
अन्यदेशागतानां च योऽधिकारं धनोभुवम् । ददाति गात्ररक्षां वा सोऽर्थप्राणैर्वियुज्यते ॥1॥
उपर्युक ही अर्थ है ।
विशेष यही है कि जो राजा नव आगंतुक को धन व प्राणरक्षा का उत्तरदायित्व प्रदान करता है, वह राज्य व प्राणों को खो बैठता है 111॥18॥
जो शासक अपने देश व राज्य में उत्पन्न व्यक्ति को कोषाध्यक्ष सेनापति, आमात्य बनाता है, उसके धन हानि होने पर भी वह कूप में पड़ी सम्पदा समान समझनी चाहिए । कूप में पड़ी वस्तु प्रयत्नपूर्वक कालान्तर में प्राप्त हो सकती है परन्तु जो दूर देश लेकर भाग गया तो क्या मिलेगा ? कुछ नहीं मिल सकता 119 ॥ नारद विद्वान ने भी कहा है :
अर्थाधिकारिणं राजा यः करोति स्वदेशजम् । तेन द्रव्यं गृहीतं यदनष्टं कूपवद्गतम् ।।1।।
पूर्वोक्त अर्थ ही है।
अत्यन्त कृपण लोभी मन्त्री यदि राजकीय धन को ग्रहण कर लेता है तब उससे धन का वापिस प्राप्त करना पाषाण से छाल छीलने के समान दुष्कर है । अर्थात जिस प्रकार पाषाण से छिलका उतारना असंभव है उसी प्रकार लुब्धक कृपण पदाधिकारियों से सम्पदा लेना-वसूल करना असंभव है । अत: ऐसे कंजूस पुरुष को कोई पदाधिकारी नहीं बनाना चाहिए। अत्रि विद्वान ने भी इसी प्रकार अपने विचार व्यक्त किये हैं :
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