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________________ नीति वाक्यामृतम् विशेषार्थ :- धनोपार्जन का निमित्त आय कहलाती है। टैक्स, चुंगी, व्यापार, कृषि आदि द्वारा प्राप्ति आय है। 8 ॥ अपने स्वामी-राजा के राज्य की आवश्यकतानुसार मन्त्री को चतुरङ्ग रक्षणार्थ व अन्य कार्यों में खर्च करना 'व्यय' कहलाता है 19॥ जो मनुष्य अपनी आय आमदनी का विचार नहीं कर उससे अधिक खर्च करता है वह कुवेर समान भी धनाढ्य हो तो भी असंख्य धनराशि रहते हए भी दरिद्री के समान हो जाता है । फिर अल्प द्रव्य के धनी राजा की क्या बात ? अत: साधारण व राजा का धनहीन होना स्वाभाविक ही है ॥ राजा का शरीर, धर्म, रानियाँ, कुमार इन सबका स्वामी शब्द से ज्ञान होता है । अभिप्राय यह है कि मन्त्री को इन सबका संरक्षण करना चाहिए । क्योंकि इनमें से किसी के भी साथ वैमनस्य या द्वेष करने पर राजा रुष्ट हो जाता है ।।12 || चतुरङ्गहाथी, अश्व, अश्वारोही व पैदल इन चारों को चतुरङ्ग कहते हैं |12|| मंत्री के दोष, एवं अपने देश का मन्त्री : तीक्ष्णं बलवत्पक्षमशुचि व्यसनिनम शुद्धाभिजनमशक्य प्रत्यावर्तनमतिव्ययशीलमन्यदेशायातमतिचिक्कणं चामात्यं न कुर्वीत 13॥ तीक्ष्णोऽभियुक्तो म्रियते मारयति वा स्वामिनम् ।14।। बलवत्यक्षो नियोगाभियुक्तः कल्लोल इव (मत्तगज इव) पाठान्तर है समूलं नृपांघ्रिपमुन्मूलयति ॥15॥ अल्पायति महाव्ययो भक्षयति राजार्थम् ।16।। अल्पायमुखो जनपद परिग्रहौ पीडयति ।।17 ॥ नागन्तु केष्वर्थाधिकारः प्राणाधिकारो वास्ति यतस्ते स्थित्वापिगन्तारोऽपकर्तारो वा ।18| स्वदेशजेष्वर्थः कूपपतित इव कालान्तरादपि लब्धं शक्यते In9॥ चिक्कणादर्थलाभः पाषाणाद्वल्कलोत्पाटनमिव ।।20।। __ अन्वयार्थ :- राजा को (तीक्ष्णम्) अतिक्रोधी (वलवद् पक्षः) जिसका पक्ष सबल हो (अशुचिः) अपवित्र (व्यसनिनम्) व्यसनी, (अशुद्ध) नीच (अभिजनम्) फुलोत्पन्न (अशक्य) हठी (प्रत्यावर्तनम्) बात न माने (अतिव्ययशीलः) आय से अधिक खर्चीला (अन्यदेशायातम्) परदेशी (च) और (चिक्कणम्) कृपण, लोभी व्यक्ति का (अमात्यम्) अमात्य (नकुर्वीत) नहीं बनाना चाहिए ।।13 ॥ (तीक्ष्णः) कोपाधिक्य से (अभियुक्तः) सहित (म्रियते) मर जाता है (वा) अथवा (मारयति) अन्य को मार देता है (स्वामिनम्) स्वामी को 114॥ (वलवत्पक्षः) बलवान पक्ष वाला (नियोगाभियुक्तः) मंत्री पदासीन (कल्लोल इव) नदी वेग समान (नपांघ्रिपम्) राजा रूपी वृक्ष को (समूलम्) जड़ से (उन्मूलयति) उखाड़ फेंकता है 115 ॥ (अल्पा) कम (आयति) आमदनी (ध्ययः) खर्च (महा) अधिक करता है वह (राजार्थम्) राजा मूल (अर्थम्) धन को (भक्षयति) भक्षण कर जाता है ।16। (अल्पआयमुख:) जो खर्च अपेक्षा अल्प आय हो तो (जनपदः) देश (परिग्रहः) राजपरिवार को (पीडयति) कष्ट देता है 117॥ (आगन्तकेषु) नवीन अनजानों को (अर्थाधिकारः) धन सम्पत्ति का अधिकार व (प्राणाधिकारः) प्राण रक्षा अधिकार (न) नहीं (अस्ति) है (यतः) क्योंकि (ते) वे (स्थित्वा) रहकर (अपि) भी (गन्तार:) अपने देश चलें जायें (वा) अथवा (अपकर्तारः) विद्रोही हो सकता है ।19 ॥ (स्वदेशजेषु) अपने देश में जन्मे (अर्थ:) कोषाध्यक्ष करे क्योंकि (कूपपतितः) वापिका में पड़े के (इव) समान (कालान्तरे) अधिक समय होने पर (अपि) भी (लब्धुं) प्राप्त करने में (शक्यते) समर्थ हो सकते हैं 129 ॥ (चिक्कणात्) कृपण से (धनलाभ:) धन प्राप्त करना (पाषाणात्) पत्थर से (वल्कल:) छाल (उत्पाटनम्) छीलने के (इव) समान कठिन है 120॥ विशेषार्थ :- राजा या प्रजा को निम्न दोषों से युक्त व्यक्ति को अमात्यपद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए... % 3D - - 374
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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