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________________ नीति वाक्यामृतम् नीचादपि च यो विद्यां प्राप्नुयाद् बुद्धिमान्नरः । दुर्दर्शमपि राजानं तत्प्रभावात् स पश्यति ।।1।। अर्थ:- यद्यपि विद्या प्रभाव से राजादि से भेंट होना तो सुलभ है तो भी उससे अर्थादि प्राप्त होना भाग्याधीन है। क्योंकि भाग्य प्रतिकूल होने पर विद्या प्रभाव कार्यकारी नहीं हो सकती है ।158॥ गुरु विद्वान ने भी कहा दुर्दर्शमपि राजानं विद्या दर्शयति धुवम् । आत्मप्रभावतो लोके तस्य भाग्यानि केवलम् ।।।। अर्थ:- विद्या निश्चय से कामधेनू सदृश शुभफलप्रदायी है । क्योंकि विद्या समस्त मनोरथों की पूर्णता करती है। समस्त सांसारिक व्यवहारों का बोध कराने वाली एवं कर्तव्यों और प्रतिष्ठा का समाधान विद्या से ही उपलब्ध होता है ।। शुक्र विद्वान ने भी यही अभिप्राय व्यक्त किया है : विद्या कामदुधा धेनुर्विज्ञानं संप्रजायते । यतस्तस्याः प्रभावेन पूज्याः स्युः सर्वतो दिशः 11॥ अर्थ :- वस्तुतः विद्या कामधेनु ही है । परम विज्ञान इसी से उत्पन्न होता है । इसके प्रभाव से सर्व दिशाओं में मनुष्य पूज्य हो जाता है । लोक व्यवहार निपुण की प्रशंसा : लोक व्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु पाज्ञोऽप्यवज्ञायक एव !160॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (लोकः) ससार (व्यवहार) पद्धति का (ज्ञाता) जानने वाला (सर्वज्ञः) सर्वज्ञ (अस्तु) होवे (अन्यस्तु) लोक व्यवहार ज्ञान रहित (प्राज्ञः) बुद्धिमान (अपि) भी (अवज्ञायकः) अवज्ञा का पात्र (एव) ही (भवति) होता है ।160॥ विशेषार्थ :- विद्वान व पण्डित वही माना जाता है जो लोक व्यवहार में निपुण होता है । व्यावहारिकता विद्वत्ता का चिन्ह है। यदि लोक व्यवहार शून्य है तो वह विद्या अवज्ञा-तिरस्कार कराने वाली ही होती है । नारद विद्वान ने कहा है : लोकानां व्यवहारो यो विजानाति स पण्डितः । मूर्योऽपि योऽथवान्यस्तु स विज्ञेयोऽपि यथा जडः 1॥ अर्थ :- लोक व्यवहार ज्ञाता पण्डित कहा जाता है । अन्य मूर्ख हो विद्वान मूर्ख ही समझा जाता है लोकरीति शून्य होने से 160 ।। प्रज्ञावान कौन : ते खलु प्रज्ञापारमिताः पुरुषा ये कुर्वन्ति परेषां प्रतिबोधनम् ।।61॥ ANA - - 369
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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