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________________ नीति वाक्यामृतम् अन्वयार्थः- (ते) वे (खल) निश्चय ही (प्रज्ञापारमिताः) बुद्धिपारंगत हैं (ये) जो (पुरुषाः) जो मनुष्य , (परेषाम्) दूसरों का (प्रतिबोधनम्) मार्गदर्शन या दिशाबोध (कुर्वन्ति) करते हैं 161 ॥ अर्थ:- संसार में ज्ञान या बुद्धि के धनेश्वर वे ही पुरुष कहे जाते हैं जो अपने ज्ञान वैभव को मुक्त कण्ठ से दूसरों को लुटाते हैं । अर्थात् आश्रितों के अज्ञान अंधकार को नष्ट कर उन्हें सद्वोध प्रदान करते हैं ।। जैमिनि ने भी कहा है : अथ विज्ञाः प्रकुर्वन्ति येऽन्येषांप्रतिबोधनम् । सर्वज्ञास्ते परे मूर्खा यत्ते स्युर्घटदीपवत् ॥1॥ अर्थात् जो अपनी विद्वत्ता से परोपकार करते हैं उन्हीं को विद्या सार्थक है अन्यथा घड़े में स्थित दीपवत् वह संकुचित रहती है ।161 ॥ कर्तव्य बोधहीन विद्या : अनुपयोगिना महतापि किं जलधिजलेन ।।62 ।। अन्वयार्थ :- (अनुपयोगिना) परोपकार शून्य विद्या (महत्ता) अधिक (अपि) भी हो तो (किम्) क्या ? (जलधिजलेन) समुद्र जल (अस्ति) है 162 ॥ विशेषार्थ :- रत्नाकर अपार जलराशि सम्पन्न होता है परन्तु उसकी एक बिन्दु भी तृषित जनों की प्यास बुझा सकती है क्या? नहीं । निष्प्रयोजन होने से उसके प्रभूत होने का क्या फल है ? कुछ भी नहीं । इसी प्रकार उस विद्या से जो मात्र अहंकार की पुष्टि करे, किसी का उपकार न कर सके - ज्ञानबोध, कर्तव्य बोध न करावे उससे भी क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं । शुक्र विद्वान ने भी कहा है : किं तया विधया कार्य या न बोधयते परान् । प्रभूतश्चापि किं तोयैर्जलधेर्व्यर्थतां गतः ।। अर्थ उपर्युक्त प्रकार ही है । अत: विद्याध्ययन का फल विनम्रता और परोपकार है । ये गुण प्रकट नहीं हों तो क्या लाभ ? कुछ भी नहीं ।। "इति स्वामि - समुद्देशः ॥" इति श्री परम् पूज्य प्रातः स्मरणीय विश्ववंध, चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् महान् तपस्वी वीतरागी दिगम्बर जैनाचार्य श्री आदिसागर जी महाराज की परम्परा के पट्टाधीश समाधि सम्राट् तीर्थ भक्त शिरोमणी परम पूज्य श्री आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज संघस्था, श्री सन्मार्ग दिवाकर कलिकालसर्वज्ञ श्री 108 आचार्य विमलसागर जी महाराज की शिष्या प्रथम गणिनी ज्ञान चिन्तामणि 105 आर्यिका विजयामती ने हिन्दी भाषा में विजयोदय टीका का 17वाँ समुद्देश श्री परम पूज्य वात्सल्य रत्नाकर, सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य परमेष्ठी श्री सन्मति सागर जी महाराज के पावन चरण सान्निध्य में पूर्ण किया ।। "॥ ॐ शान्ति ॐ ।।" %E 370
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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