________________
नीति वाक्यामृतम्
(सह) साथ-परलोक में (अनुयायित्वात्) साथ जाने वाली होने से 1156 ॥ (सरित्) नदी (समुद्रम्) सागर को पालती है (इव) इसी प्रकार (नीच:) नीच पुरुष (उपगता) प्रान (अपि) भी (विद्या) विद्या (दुर्दशम्) कठिनाई से (अपि) भी दर्शनीय (राजानम्) नृपं को (संगमयति) मिला देती है 57|| (परन्तु) किन्तु (भाग्यानाम्) शुभोदय का (व्यापारः) धनलाभादि होना है ।1581 (खलु) निश्चय से (सा) वह (विद्या) विद्या (विदुषाम) विद्वानों को (कामधेनुः) कामधेनु है (यनो-यतः) जिमसे (समस्त) सम्पूर्ण (जगत् स्थितिः) संसार की स्थिति का (ज्ञानम) ज्ञान (भवति) होता है ।159॥
विशेषार्थ :- संसार में मनुष्य, पुरुष का सेवक नहीं होता अपितु धन का भृत्य होता है । क्योंकि जीवन निर्वाह तो धन ही से होता है । गुरु विद्वान ने भी कहा है :
पुमान् सामान्य गात्रोऽपि न चान्यस्य स कर्मकृत् ।
यत् करोति पुनः कर्म दासवत्तद्धनस्य च ॥ इसी प्रकार व्यास ने भी कहा है :
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्स्वर्थो न कस्यचित् ।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ।। अर्थ:- हे युधिष्ठिर ! सुनिये, मनुष्य धन का दास है । परन्तु धन किसी का दास नहीं होता अत: धन के कारण ही मैं (भीष्मपितामह) कौरवों का अधीन हुआ हूँ (महाभारत के भीष्म पर्व में युधिष्ठर से महात्मा भीष्मपितामह ने कह है ।।) 154 ॥ संसार में धनहीन पुरुष कौन है जो छोटा-लघु नहीं होता ? सभी होते ही हैं ।।55 ॥ महाकवि कालिदास ने अपने मेघदूत काव्य में कहा है :
"रिक्त: सर्वो भवति हि लधुः पूर्णता गौखाय ।।" अर्थात् संसार में सभी मनुष्य दारिद्रय से लघु और धन से गुरु-महान होते हैं ।। बड़े होते हैं । 55 ॥
सुवर्णादि समस्त धनों में विद्या धन सर्वोत्तम है-प्रधान है क्योंकि अन्य धन तो चोर-लुटेरों द्वारा हरा जा सकता है परन्तु विद्या धन को कोई भी दस्यु चुरा नहीं सकता । इतना ही नहीं यह परलोक में भी साथ ही जाता है जबकि अन्य धन का एक परमाणु भी साथ नहीं जाता ।।56 | नारद ने भी विद्या की महत्ता कही है :
धनानामेव सर्वेषां विद्याधनमुत्तमम् । लियते यन्न के नापि प्रस्थितेन समं व्रजेत् ।।1।।
उपर्युक्त ही अर्थ है 156॥ अर्थ:- जिस प्रकार सरिता निम्न गामिनी होकर भी अपने प्रवाहवर्ती पदार्थों-तृणादिकों को दूरवर्ती सागर में ले जाकर मिला देती है, उसी प्रकार नीच पुरुष के पास गई विद्या भी उच्च पुरुष-जिसका दर्शन कठिनाई से होना संभव है ऐसे राजादि से मिला देती है 157 ॥ गुरु विद्वान के उद्धरण में भी यही आशय है :
-
368