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नीति वाक्यामृतम्
नीतिवान पुरुषों को अपरिचित व असहिष्णु व्यक्तियों के साथ हंसी-मजाक नहीं करना चाहिए ।। क्योंकि इसका परिणाम महाभयङ्कर होता है । पुराण में आख्यान मिलता है कि जुआ में रुक्मि ने बलदेव की हंसी उड़ाई थी, परन्तु वे उसे सहन नहीं कर सके । फलतः उन्होंने क्रुद्ध होकर रुक्मि पर गदा प्रहार कर डाला और उसका अनायास व्यर्थ ही घात हो गया ।511 शौनक विद्वान ने भी लिखा है :
हास्य केलिं न कुर्वीत भूपः सार्द्ध समागतः । ये चापि न सहन्तेस्म दोषोऽयं यतोऽपरः ।।
उपर्युक्त ही अर्थ है ।। शिष्टाचार पालक, नैतिक पुरुष को पूज्य पुरुषों के साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए । 52 । शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
पूज्यैः सह विवादं यः कुरुते मतिवर्जितः । सनिन्दा लभते लोके परत्र नरकं व्रजेत् ।।1॥
अर्थ :- व्यक्ति को मूर्खतावश पूज्यपुरुषों के साथ वाद-विवाद नहीं होना चाहिए । क्योंकि पूज्यों के साथ वाद-विवाद करने वाला लोक में निद्य होता है और परलोक में दुर्गति का पात्र बनता है।। नरकों के दुःख भोगता है। 1525॥
जो व्यक्ति अति दरिद्री व बहकुटुम्बी है, उसे धन देकर उससे अधिक ब्याज की आशा से उसे दुःखी नहीं करना चाहिए । जिससे उसका भरण-पोषण नहीं हो सके अपित् और भार हो जाय उससे क्या प्रयोजन ? अतः शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
पुष्टि नेतुं न शक्येत योजनः पृथ्वी भुजा । वृथाशया न संक्लेशो विशेषान्निष्प्रयोजनः ।।
उपर्युक्त ही अर्थ है ।।53॥ सेवक किसका ? दरिद्रता की लघुता व विद्या का माहात्म्य :
पुरुषस्य पुरुषो न दासः किन्तु धनस्य ।।54॥ को नाम धनहीनो न भवेल्लघुः ॥5॥
सर्वधनेषुविद्यैव धनं प्रधान महार्यत्वात् सहानुयायित्वाच्च ।।56 ॥ सरित्समुद्रमिव नीचोपगतापि विधा दुर्दर्शमपि राजानं संगमयति ।।57 ॥ परन्तु भाग्यानां व्यापारः ।।58।। सा खलु विद्या विदुषां कामधेनुर्यतो भवति समस्त जगत्स्थिति ज्ञानम् ।।59॥
अन्वयार्थ :- (पुरुषः) मनुष्य (न) नहीं (पुरुषस्य) मनुष्य का दास (किन्तु) अपितु (धनस्य) धन का है।।54 ॥ (को नाम) कौन (धनहीनः) दरिद्री (लघुः) नीच (न) नहीं (भवेत्) होवे? 1155 ॥ (सर्वधनेषु) सब धनों में (विद्या) ज्ञान (एव) ही (प्रधानम्) मुख्य (धनम्) धन है (अहार्यत्वात्) चुराई नहीं जाने से (च) और
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