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नीति वाक्यामृतम्।
कुलशीलोद्भवा ये च गुणा विद्यादयोऽपराः ।।
ते सर्वे नाशमायान्ति ये मिथ्यावचनात्मकाः ।। अर्थ :- स्वाभाविक शुद्धकुलोद्भव-परम्परा से प्राप्त तथा अन्य भी पुरुषार्थ साध्यविद्यादि गुण असत्य भाषण से नष्ट हो जाते हैं । अतः गुणों की रक्षा व वृद्धि के लिए सतत सत्य भाषण करना चाहिए । मिथ्या वचन सर्वथा त्याज्य हैं In ॥ इसी प्रकार :
वंचक, ठगों-धोखेबाजों के पास न सेवक जन ही ठहरते हैं और न वे चिरायु होते हैं। क्योंकि उनके अनायास शत्रु पीछे लगे रहते हैं। कारण कि सेवकादि को यथा समय वेतन नहीं देते, विपत्ति में उनकी सहायता नहीं करते। वे उनसे विमुख हो जाते हैं, द्वेष करते हैं और अवसर पाकर उन्हें अकाल में ही मृत्यु का ग्रास बना ही देते हैं। अतएव सत्पुरुषों को असत्य व ठग-वंचना का सर्वथा त्याग करना चाहिए 17 || भागुरि ने भी कहा है :
यः पुमान् वंचनासक्तस्तस्य न स्यात् परिग्रहः ।
न चिरं जीवितं तस्मात् सद्भिस्त्याज्यं हि वंचनम् ।।1॥ अर्थ :- जो पुरुष वंचना करने में निपुण है, उसके सेवकादि भी नहीं रहते और जीवन भी सदा सन्देह तुला पर आरूढ़ रहता है । अत: धोखेबाजी का त्याग करना श्रेयस्कर है ।।7 ॥ लोकप्रिय, दाता, प्रत्युपकार का फल, कृतज्ञ की कड़ी आलोचना :
स प्रियोलोकानां योऽयं ददाति 118 ॥ स दाता महान् यस्य नास्ति प्रत्याशोपहतं चेतः 19॥ प्रत्युपकर्तुरुपकार: सवृद्धिकोऽर्थन्यास इव तज्जन्मान्तरेषु च न केषामृणं येषामप्रत्युपकारमनुभवनम् In0॥ किं तया गवा या न क्षरति क्षीरं न गर्भिणी वा In1 || किं तेन स्वामि-प्रसादेन यो न पूरयत्याशाम् |n2॥
अन्वयार्थ :- (यः) जो पुरुष (अर्थम्) धन (ददाति) दान करता है (स:) वह (लोकानाम्) संसार का (प्रियः) प्रिय [होता है] अत्रि विद्वान ने भी लिखा है :
अन्त्यजोऽपि च पापोऽपि लोक वाह्योऽपि निर्दयः ।
लोकानां वल्लभः सोऽत्र यो ददाति निजं धनम् ॥॥ अर्थ :- जो मनुष्य चाण्डाल, पापी, जाति वहिष्कृत, निर्दयी भी होकर यदि लोगों को अपना धन दान देता है तो वह भी जनता का प्रिय पात्र बन जाता है । ॥
(सः) वह (दाता) दानी (महान्) उत्तम है (यस्य) जिसका (प्रत्याशा) प्रत्युपकार के भाव से (चेतः) चित्त (उपहतः) पीड़ित (नास्ति) नहीं है । अत्रिपुत्रक ने कहा है :
दत्वा दानं पुरुषोऽत्र तस्माल्लाभं प्रवाञ्छति । प्रगृहीतुः सकाशाच्च तद् दान व्यर्थतां भवेत् ।11॥
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