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________________ नीति वाक्यामृतम् : अर्थ जो व्यक्ति धनादि दान देकर याचकों से प्रत्युपकार चाहता है उसका दान देना व्यर्थ है । अभिप्राय यह है कि संसार में दाता वही श्रेष्ठ है जो निस्पृह होकर, प्रत्युपकार की भावना से शून्य होकर याचकों को अभिलाषित धनादि देता है । यदि उसके बदले में उससे धनादि ग्रहण का भाव रखता है तो यह दान नहीं वणिक् वृत्ति व्यापार है । अतः आत्महितैषी को उदार भाव से प्रत्युपकार की भावना से रहित होकर दान देना चाहिए ॥ 19 ॥ (प्रत्युपकर्तुः) कृतज्ञ का (उपकार) उपकार (सवृद्धिक: ) वृद्धिसहित (अर्थ) धन (न्यासः) धरोहर (इव) समान (तत्) वह (जन्मान्तरेषु) परलोक में भी युक्त है (च) और (येषाम् ) जिनके (अप्रत्युकार :) बिना उपकारी का उपकार माने ( अनुभवनम् ) भोगता है वह (केषाम् ) किसको (ऋणम्) कर्ज (न) नहीं है ? है । जो प्रत्युपकार की भावना रखता है उसका उपकार वृद्धिंगत करने वाली सम्पत्ति के समान है । अभिप्राय यह है कि उपकृत - विश्वासपात्र है उसके यहाँ रखी धन-सम्पत्ति सुरक्षित है तो जब चाहे तब ले सकते हैं परन्तु उसमें अधिकता कुछ भी नहीं होती । परन्तु प्रत्युपकारी के साथ किया धन दानादि से उपकार, उपकारी को विशेष फलदायक होता है। क्योंकि उसके बदले में विशेष धनादि लाभ होने से बढ़ने वाली धरोहर के समान जानना चाहिए। अतः प्रत्युपकारी को दिया दान विशेष लाभकारी होता है ।। इसी प्रकार जो लोग प्रत्युपकार किये बिना परोपकार का उपभोग करते हैं वे जन्मान्तर में किन दाताओं के ऋणी नहीं होते ? सभी के कर्जदार बने रहेंगे । सारांश यह हुआ कि शिष्ट पुरुष को कृतज्ञतापूर्वक उपकारी का प्रत्युपकार करना चाहिए ||10 ॥ ऋषिपुत्रक विद्वान ने कहा है : 1 उपकार हीत्वा य: प्रकरोतिपुनर्नवा जन्मान्तरेषु तत्तस्य वृद्धिं याति कुसीदवत् ॥1॥ अर्थ उपर्युक्त प्रकार ही है ॥10 ॥ अन्वयार्थ :- (किम् ) क्या (तया) उस ( गवा) गाय से प्रयोजन (या) जो (न) नहीं (क्षरति) देती है (क्षीरम्) दूध (वा) अथवा (गर्भिणी) गर्भधारक भी (न) नहीं होती ? तथैव (तेन) उस ( स्वामी प्रसादेन ) स्वामीराजा की प्रसन्नता से (किम्) क्या (यः) जो (आशाम् ) आशा इच्छा को (न) नहीं ( पूरयति) पूर्ण करती 1172 1 - विशेष :- उस गाय से क्या प्रयोजन जो दूध नहीं देती और गर्भ भी धारण नहीं करती ? कोई लाभ नहीं है । उसी प्रकार राजादि स्वामी प्रसन्न रहकर यदि याचकों की आशा पूर्ति नहीं करे न्यायपूर्वक सेवकों के मनोरथ पूर्ण न करे तो उसकी प्रसन्नता से क्या लाभ ? कुछ भी लाभ नहीं है । क्योंकि अपने आश्रितों के मनोरथों की पूर्ति करना ही स्वामी राजादि का कर्त्तव्य है 1112 ॥ क्षुद्र - दुष्ट अधिकारी युक्त राजा कृतघ्नता, मूर्खता, लोभ, आलस्य से हानि : क्षुद्रपरिषत्कः सर्पाश्रय इव न लस्याऽपि सेव्यः 1113 ॥ अकृतज्ञस्य व्यसनेषु न सहन्ते सहायाः ||14|| अविशेषज्ञो विशिष्टैर्नाश्रीयते ॥15 ॥ आत्मम्भरिः परित्यज्यते कलत्रेणापि 1116 || अनुत्साहः सर्वव्यसनानामागमन द्वारम् 1|17 ॥ 354
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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