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राजा का लक्षण :
नीति वाक्यामृतम्
(17)
स्वामी - समुद्देश
धार्मिक : कुलाचाराभिजन विशुद्धः प्रतापवान्नयानुगतवृत्तिश्च स्वामी ॥11 ॥
कोपप्रसादादयोः स्वतन्त्र ॥ 12 ॥ आत्मातिशयं धनं वा यस्यास्ति स स्वामी ॥3 ॥
अन्वयार्थ :- ( धार्मिकः) धर्मात्मा (कुलाचार :) शुद्धाचरणी (अभिजनविशुद्धः) श्रेष्ठ कुलोत्पन्न (प्रतापवान ) प्रतिभासम्पन्न (नयानुगत) नय के अनुसार (च) और (वृत्तिः) प्रवृत्ति करने वाला (स्वामी) राजा (कोपः ) दुष्टों के प्रति कोप (प्रसादादयः) शिष्टों के प्रतिपालन को प्रसन्नादि (स्वतन्त्रः) अपने कार्यों में स्वाधीन (आत्मातिशयं ) आत्मगौरव सम्पन्न (धनम् ) प्रचुर सम्पत्ति (वा) अथवा (यस्य) जिसके धन है (सः) वह (स्वामी) राजा है 17,31
विशेषार्थ :- जो धर्मात्मा हो, कुलाचार श्रेष्ठ, उत्तम शुद्ध कुल-वंश-परम्परा में उत्पन्न, भाग्यशाली, नैतिकाचारसम्पन्न, दुष्टों के साथ दण्डप्रयोग-कोप, शिष्टों का परिपालन- प्रसन्नचित्त, स्वतन्त्र विचारक, आत्म-गरिमा युक्त, धन-सम्पत्ति सम्पन्न - सेना-खजाना भरपूर रखने वाला हो वह राजा या स्वामी कहलाता है । शुक्र, गर्ग और गुरु ने भी राजा का यही लक्षण कहा है :
धार्मिको यः कुलाचारै विशुद्धः पुण्यवान्नयी । स स्वामी कुरुते राज्यं विशुद्ध राज्यकण्टकैः ॥ 11 ॥ स्वायत्तः कुरुते यश्च निग्रहानुग्रहों जने I पापे साधुसमाचारे स स्वामी नेतरः स्मृतः ॥ 12 ॥ आत्मा च विद्यते यस्य धनं वा विद्यते बहु । स स्वामी प्रोच्यते लोकैर्नेतरोऽत्र कथंचन ॥13 ॥
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