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नीति वाक्यामृतम् -
अर्थ :- जिस पुरुष के वचनों से स्त्री, भृत्य, पुत्रादि को कष्ट हो वे परुष या कठोर वचन कहलाते हैं। इनके द्वारा प्राणी को रञ्चमात्र भी सुख नहीं होता ।
(बधः) मृत्युदण्ड (परिक्लेश:) पीड़ादान (अर्थहरणम्) धन हड़पना (अक्रमेण) बिनाक्रम आरोप (दण्डपारुष्यम्) दण्डपारुष्य कहलाता है 132॥
अन्याय से किसी की हत्या करना, जेलखाने की सजा देना, समस्त धन अपहरण करना या उसकी जीविका नष्ट कर देना "दण्डपारुष्य" है ।82 ।। गुरु विद्वान ने कहा :
बंध क्लेशापहारं यः प्रजानां कुरुते नृपः । अन्यायेनहितत् प्रोक्तं दण्डपारुध्यमेव च ।।1।।
उपर्युक्त ही परिभाषा है।
(एकेन) एक (अपि) भी (व्यसनेन) व्यसन द्वारा (उपहतः) पीड़ित (चतुरङ्गः) चतुरंग सेनासहित (अपि) भी (राजा) नृप (विनश्यति) नष्ट हो जाता है, (किं) क्या (पुन:) फिर (न) नहीं (अष्टादशभिः) अठारह व्यसनों की क्या बात ?
जो भूपति उपर्युक्त 18 व्यसनों में से एक का भी सेवन करता है, वह चतुरङ्ग-सेना-हाथी, घोड़ा, रथ, पदाति से युक्त हो, खजाने की भी दृढ़ता-भरपूर हो तो भी नष्ट हो जाता है । फिर यदि 18 के अठारह ही सेवन करे तो उसका विनाश तो सुनिश्चित है ही ।।
- इस समुद्देश में आचार्य श्री ने राजा और राजसत्ता के नाश के कारणभूत अठारह व्यसनों का निरूपण किया हैं। वस्तुतः ये व्यसन प्राणी मात्र के अहित करने वाले हैं । ये निम्न प्रकार है :
(1) स्व स्त्री में आसक्ति अर्थात् अमर्याद स्त्री संभोग करना (2) मद्यपान-शराब पीना (3) शिकार खेलना - आखेट (4) धूत खेलना-जुआ खेलना (5) पैशून्य-चुगली करना (6) दिन में सोना-ग्रीष्मकाल के अतिरिक्त दिन में शयन करना (7) पर निन्दा करना (8) गीत श्रवण करने में आसक्ति रखना (9) नृत्यदर्शन में आसक्ति (10) वादित्र-वाजा श्रवण करने में लोलुपता रहना (11) वृथा-निष्प्रयोजन (12) ईर्ष्या (13) दुस्साहस (परस्त्री सेवन व कन्यादूषण) (14) अर्थदूषण-धन का अपव्यय-दुरुपयोग करना (15) अकारण वध (16) पर द्रव्य हरणचोरी (17) कर्कश-कटु भाषा प्रयोग करना और (18). दण्डपारुष्य-अन्यायपूर्वक दण्ड देना ।।अनावश्यक अन्य भी कार्यों का त्याग करना चाहिए ।।
" ।। इति व्यसन समुद्देशः ॥" इति श्री परम् पूज्य प्रातः स्मरणीय, विश्ववंद्य, चारित्रचक्रवर्ती, मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट, महातपस्वी, वीतरागी दिगम्बर जैनाचार्य श्री आदिसागर जी 'अंकलीकर' के पट्टाधीश आचार्य तीर्थ भक्ति शिरोमणि श्री महावीर कीर्ति जी संघस्था, श्री परम् पूज्य निमित्तज्ञान शिरोमणि आचार्य 108 विमल सागर जी महाराज की शिष्या 105 प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामती ने श्री परम् पूज्य सिद्धान्तचक्रवर्ती 108 आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज के चरणारविन्द सान्निध्य में हिन्दी भाषा की विजयोदय टीका में 16वा समुद्देश समाप्त किया ।।
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