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________________ नीति वाक्यामृतम् यो हरेद्भूषजं वित्तमपि स्वल्पतरं हि यत् 1 गृहस्थस्यापि विज्ञस्य तन्नाशाय प्रजायते ॥ 11 ॥ राजकीय अल्प अर्थ का भी अपहरण व्यापारी या गृहस्थ के प्रचुर संचित द्रव्य नाश का कारण हो जाता #128 || वाक पारुष्यं शस्त्रणतादपि विशिष्यते ॥ 29 ॥ (वाक्) वचन (पारुष्यम्) कठोरता ( शस्त्र) अस्त्र (पाताद्) गिराने से (अपि) भी ( विशिष्यते) अधिक है ॥ 29 ॥ कठोर वचन शस्त्र के घाव से भी अधिक पीड़ाकारक होता है । अतएव मर्मभेदी, कर्कश वचन बोलना अच्छा नहीं है । 29 | विदुर ने भी कहा है : वाक्सायका रौद्रतमा भवन्ति यै राहतः शोचति रात्र्यहानि । परस्य मर्मस्वापिते पतन्ति तान् पण्डितो नैव क्षिपेत् परेषु ॥1 ॥ अर्थ :- कर्कश वचन रूपी वाण महातीक्ष्ण व भयंकर होते हैं, क्योंकि वे दूसरों के मर्मस्थल का भेदन कर यातना प्रदान करते हैं । इनसे बिद्ध मनुष्य अहर्निश व्याकुल रहता है । अतएव सत्पुरुषों को कठिन व कर्कश वचन नहीं बोलना चाहिए ॥ 7 ॥ 1 (जाति) जाति (वय: ) उम्र (वृत्त) आचरण (विद्या) ज्ञान के ( दोषाणाम् ) दोषोत्पादक (अनुचितम्) अयोग्य (वच:) वचन (वाक् ) वचन ( पारुष्यम्) कठोरता [ अस्ति ] है 1130 ॥ कुलीन को नीच, वृद्ध को बाल, सदाचारी को दुराचारी, विद्वान को मूर्ख और निर्दोष को दोषी कहना 'वाक् पारुष्य' कहलाता है । 130 ॥ जैमिनि विद्वान ने भी कहा है : जातिविद्यासुवृत्ताढ्यान् निर्दोषान् यस्तु भर्त्सयेत् । तद्गुणैर्वामतां नीतैः पारुष्यं तन्न कारयेत् ॥1॥ उपर्युक्त ही अर्थ है। (स्त्रियम्) पत्नी (अपत्यम्) पुत्र (भृत्यम्) नौकर (च) और ( तथोक्त्या) पारुष्य वचनों के प्रति (विनयम् ) विनय अनुकूलता (ग्राह्येत्) ग्रहण करे (यथा) जिससे (प्रविष्ट) घुसी (शल्यम्) कांटे (इव) समान (ते) वे वचन (न) नहीं (दुर्भनायन्ते) दुःखी मन करे । नैतिक मनुष्य अपनी पत्नी, पुत्र, सेवक- नौकर-चाकरों को वाक्पारुष्यकर्कश वचन का त्याग करना, हित, मित-प्रिय वचन बोलना चाहिए । विनयशील बनना चाहिए । इस प्रकार नम्रता व विनयपूर्वक अन्य के प्रति वचन कहने से वे दूसरों के हृदय में कील समान चुभकर कष्ट नहीं देते, अपितु आनन्द प्रदायक होते हैं ॥31॥ शुक्र ने भी कहा है : भावभृत्यसुता यस्य वाक् पारुष्य सुदुःखिताः । भवन्ति तस्य नो सौख्यं तेषां पाश्र्वात् प्रजायते ॥11 ॥ 349
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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