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भृगु ने कहा:
नीतिवाक्यामृतम्
अङ्गीकृत्यात्मनो मृत्युं यत् कर्म क्रियते नरैः । तत्साहसं परिज्ञेयं रौद्रकर्मणि निर्भयम् ॥॥7॥
भृग
सारांश यह है कि परस्त्री को माता, बहिन, पुत्री सम देखना चाहिए । उसी प्रकार कन्या के शील-संयम का रक्षण सत्पुरुषों का कार्य है 1118-19 ॥
(यत्र) जहाँ (अहम्) मैं (न अस्मि) नहीं हूँ (इति) इस प्रकार (अध्यवसायः) प्रतीति (तत्) वह ( साहसम् ) साहस है 120 ॥ उपर्युक्त अर्थ ही यहाँ समझना ।।
( अर्थदूषकः) धन का दुरुपयोग कर्ता (कुबेरोऽपि ) कुबेर भी ( भिक्षाभाजनम्) भीख मांगने वाला (भवति) होता है । 21। जो व्यक्ति अपनी आय से अधिक व्यय करता है अथवा कुपात्र, अपात्रों को दान देता है वह कुबेर के समान धनाढ्य होने पर भी भिक्षुक समान हो जाता है 1121 | हारीत विद्वान भी कहते हैं :
अति व्ययं च योऽर्थस्य कुरुते कुत्सितं सदा । दारिद्रयोपहतः स स्याद्धनदोऽपि न किं परः ॥ 11 ॥
अर्थ :कुबेर समान भी नर अपव्यय व कुदानादि से दारिद्रय से पीड़ित हो जाता है तो फिर साधारण जनों की क्या बात ? वे तो हो ही जायेगे कंगाल ||
अभिप्राय यह है कि विवेकी पुरुषों को अपनी सम्पदा का सदुपयोग करना चाहिए। सत्पात्रदानादि सप्तक्षेत्रों में यथाशक्ति प्रदान करे ॥21॥
( अतिव्ययः) आय से अधिक खर्च (च) और (अपात्रव्ययः) अपात्रों को दान (अर्थदूषणम् ) धन का दूषण
है ।
अपनी आमदनी से अधिक खर्च करना और अपात्रों को दान देना अपने धन का दुर्व्यवहार है । 122 | ( हर्ष) अहं (आमर्षभ्याम्) क्रोध द्वारा (तृणाकुरम्) तिनके को (अपि) भी (न) नहीं (उपहन्यात्) नष्ट करे (पुनः) फिर ( मर्त्यम्) मनुष्य की (किम्) क्या बात ?
अहंकार व क्रोधावेश में एक तिनके के अकुर की भी हिंसा नहीं करना चाहिए, फिर मनुष्य को मारने व कष्ट देने की तो बात ही क्या है ? किसी को सताना पाप है । भारद्वाज का भी यही कथन है :
तृणच्छेदोऽपिनो कार्यो बिना कार्येण साधुभिः ।
येन नो सिद्धूयते किं चित् न किंपुनर्मानुषंमहः ॥11 ॥
(निष्कारण) बिना प्रयोजन (भूतः) प्रजा को (अवमानिनौ) अपमानित करने वाला (वातापिः ) वातापि (च) _और (इल्वलः) इल्वल नामक (द्वौ) दो (असुरौ) असुर (किल) निश्चय से ( अगस्त्याशनात्) अगस्त्य नाम सन्यासी
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