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________________ नीति वाक्यामृतम् "जीवन चलाने वाला (सः) वह ( तीक्ष्णो ) तीक्ष्ण (वा) अथवा (असहन: ) ||35 | (बन्धुस्नेहरहिताः) परिवार में स्नेह नहीं सहने वाला (प) क्रूर है 156 (अलसा) आलसी (च) और ( रसदाः) रसद हैं । 1136 ॥ जड़मूर्ख, मूक- गंगा, वधिरा- वहरा, अन्धा - नेत्रहीन प्रसिद्धाः ॥ 38 ॥ इस प्रकार चौंतीस प्रकार के गुप्तचर हैं ।। विशेषार्थं :- जो वेश्याओं को पुरुषवशीकरण मंत्रादि प्रयोग बतलाकर आजीविका चलाता है, संगीतादि कला का उपदेश करता है उसे "गायक" कहते हैं ॥24 ॥ गीत सम्बन्धी प्रबंन्धों को गतिविशेषों को बजाने वाला और चारों प्रकार के-तत, अवनद्ध, धन व सुषिर आदि वाद्य बजाने की कला प्रवीण गुप्तचर को "वादक" कहते हैं 1125 ॥ जो स्तुति पाठक या बन्दी बनकर राजकीय कार्यों को गुप्तरीति से सिद्ध करते हैं वे " वाग्जीवि" कहलाते हैं 1126 || गणितशास्त्रज्ञ वा जोतिष विद्या निपुण गुप्तचर को "गणक" कहते हैं । 127 || शुभाशुभ लक्षणों द्वारा शुभाशुभ फल बताने वाले को "शाकुनि" कहते हैं ॥28॥ अष्टाङ्ग आयुर्वेद के ज्ञाता व शस्त्रचिकित्सा - प्रवीण गुप्तचर को "भिषक्' " कहते हैं । 29 ॥ तन्त्रशास्त्र की युक्तियों द्वारा आश्चर्यजनक व मायावी दृश्य दिखाये उसे "ऐन्द्रजालिक" कहते हैं ॥ 30 ॥ निशाना लगाने में प्रवीण धनुर्धारी अथवा निमित्तशास्त्र के विद्वान् गुप्तचर को "नैमित्तिक" कहते हैं 131 ॥ पाक विद्याप्रवीण गुप्तचर को " सूद" कहते हैं 1132 ॥ नाना प्रकार की भोजन सामग्री बनाने में निष्णात को "आरालिक" कहते हैं ॥33॥ हाथ-पैर दबाने की कला में निपुण या भारवाही - कुली के वेष में रहने वाले गुप्तचर को संवाहक कहते हैं । 134 ॥ जो गुप्तचर धनार्थी लोभवश अत्यन्त दुर्लभ और कठिन कार्यों से अपनी आजीविका करते हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी जीवन को खतरे में डाल देते हैं । सिंह, व्याघ्र, व्यालादि का सामना भी कर बैठते हैं । धैर्यहीन होते हैं । ऐसे गुप्तचरों को "तीक्ष्ण" कहते हैं । 35 ॥ जो गुप्तचर अपने बंधुजनों से विरोध करता है उसे " क्रूर" कहते हैं 1136 ॥ कर्त्तव्यपालन में निरुत्साही प्रमादी गुप्तचरों को "रसद" कहते हैं |37 ॥ मूर्ख को जड़, गूंगे को मूक, बधिक को बहरा और अंधे को अन्ध कहते हैं 1138 ॥ ये वस्तुत: मूर्ख, मूक बधिर व अन्धे नहीं होते अपितु कार्य सिद्धि के लिए कपट से बन जाते हैं । 138 | शुक्र विद्वान ने भी कहा है :स्थायिनो यायिनश्चारा यस्य सर्पन्ति भूपते: स्वपक्षे परपक्षे वा तस्य राज्यं विवर्द्धते I ||1|| अर्थ :- जिस राजा के यहाँ स्वदेश में "स्थायी" और शत्रु देश "याथी" गुप्तचर घूमते रहते हैं । उसके राज्य की वृद्धि होती है । गुप्तचर - खुफिया राज्य की सुरक्षा, वृद्धि और समृद्धि के प्रमुख साधन होते हैं । इनके निमित्त से राजा और राज्य सुव्यवस्थित रहते हैं । चारों ओर के खतरों से ये सुरक्षित रखते हैं। अतः राजाओं को गुप्तचर नियुक्त कर उन्हें प्रसन्न और अनुकूल रखना चाहिए I ।। ।। इति चार समुद्देशः ॥14 ॥ इति श्री परम पूज्य, प्रातः स्मरणीय, विश्व वंद्य, चारित्रचक्रवर्ती मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट्, महातपस्वी, वीतरागी, दिगम्बर जैनाचार्य श्री 108 आदिसागर जी (अंकलीकर) महाराज के पट्टाधीश परम् पूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि आचार्य परमेष्ठी श्री महावीर कीर्ति जी महाराज की संघस्था, श्री परम् पूज्य सन्मार्गदिवाकर, वात्सल्य रत्नाकर श्री 108 आचार्य विमल सागर जी महाराज की शिष्या श्री 105 प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामती माताजी द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका में चार समुद्देश नामका 14वां समुद्देश श्री परम पूज्य, तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती परम्पराचार्य श्री 108 सन्मतिसागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में समाप्त हुआ 110 ॥ ון פו ו 331
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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