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________________ नीति वाक्यामृतम् सुरक्षित नहीं रह सकते उसी प्रकार गुप्तचरों के अभाव में राजा की कुशलक्षेम नहीं हो सकती ।। सारांश यह है कि राजा को राज्य की रक्षार्थ गुप्तचर अवश्य रखना चाहिए । गुप्तचरों को कुन्द-कुन्द स्वामी ने राजाओं के नेत्र कहा है : नेत्रद्वये नभूपालोवीक्षते राज्य संस्थितिम् । राजनीतिस्तु तत्रैकं द्वितीयं चरसंज्ञकम् ॥ अर्थ :- राजा को सतत ध्यान रखना चाहिए कि राजनीति और गुप्तचर ये दो आँखें हैं जिनसे राजा अवलोकन करता है ।।। ।। कुरल, परि.छेद 59. गुप्तचरों के भेद एवं लक्षण : छात्र कापिटकोदास्थित-गृहपति-वैदेहित-तापस-किरात-यम पट्टिका हितुण्डिक शौण्डिक-शोभिकपाटच्चर-विट-विदूषक-पीठमद-नर्तक-गायन-वादक-वाग्जीवन-गणक-शाकुनिक-भिषगैन्द्रजालिकनैमित्तिक-सूदारालिक-संवादक-तीक्ष्ण क्रूर-जड़-मूक-बधिरान्ध छावस्थायियापि भेदेनावसर्पवर्गाः । ॥ विशेषार्थ :- आगम में दूतों के 34 भेद कहे हैं, वे हैं-कुछ कार्य तो अवस्थायी होते हैं, जिन्हें राजा स्वयं अपने ही देश में पुरोहित आदि की जांच के लिए नियुक्त करते हैं और कुछ यायी-अन्य देश के शत्रु राजाओं की गति-विधि का ज्ञान करने के लिए नियुक्त करते हैं । 34 भेद निम्न प्रकार हैं-1. छात्र, 2. कापटिक 3. उदास्थित 4. गृहपति 5. वैदेहिक 6. तापस 7. किरात 8. यमपट्टिक 9. अहितुण्डिक 10. शौण्डिक 11, शौभिक 12. पाटच्चर 13. विट 14. विदूषक 15. पीठमई 16. नर्तक 17. गायन 18. वादक 19. वागजीवन 20 गणक 21. शाकुनिक 22. भिषक् 23. ऐन्द्रजालिक 24. नैमित्तिक 25. सद 26. आरालिक 27. संवादक 28. तीक्ष्ण 29. क्रूड़ 30. रसद 31. जड़ 32. मूक 33. वधिर और 34. अन्ध ।।। परमर्मज्ञः प्रगल्भश्छात्रः ।।9।। अन्वयार्थ :- (पर) दूसरे के (मर्मज्ञः) अन्त:करण का ज्ञाता (प्रगल्भः) बुद्धिमान (छात्रः) छात्र कहलाता है Inor विशेषार्थ :- अन्य वाह्य, अभ्यन्तर शत्रुओं के हृदय-विचारों का ज्ञाता व प्रतिभाशाली गुप्तचर "छात्र" कहलाता है ||10॥ यं कमपि समयमास्थाय प्रतिपन्नछात्रवेषकः कापाटिकः ।।10।। प्रभूतान्तेवासी प्रज्ञातिशययुक्तो राजा परिकल्पितवृत्तिरुदास्थितः ।।11॥ अन्वयार्थ :- (यम्) जिस (कम्) किसी (अपि) भी (समयम्) शास्त्र को (आस्थाय) पढ़कर (प्रतिपन्न:) प्रबुद्ध (छात्रवेषक:) छात्र के वेष में हो वह (कापाटिकः) कापाटिक है । (प्रभूत) बहुत (अन्तेवासी) छात्रमण्डल युक्त (प्रज्ञातिशययुक्तः) तीक्ष्णबुद्धिवाला (राज्ञा) राजा के आश्रित (परिकल्पितवृत्तिः) निश्चित आजीविका वाला (उदास्थितः) उदास्थित [अस्ति] है 19-10111|| 328
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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