________________
करे प्रत्युत्तर नहीं दे ।। और भी :
नीति वाक्यामृतम्
गुरुषु स्वामिषु वा परिवादे नास्ति क्षान्तिः ।। 17
अन्वयार्थ :- ( गुरुषु) गुरु की (वा) अथवा (स्वामिषु) स्वामी की (परिवादे) निन्दा करने पर (क्षन्ति:) शान्त (नास्ति) नहीं रहना ।
विशेषार्थ :- यदि शत्रु राजा गुरु की अथवा दूत के राजा स्वामी की निन्दा करे तो उस समय उसे मौन नहीं रहना चाहिए अपितु यथायोग्य प्रतिकार करे ||11| जैमिनि विद्वान ने कहा है :
गुरोर्वा स्वामिनो वापि तां निन्दां परेण तु 1 यः श्रृणोति न कुप्यच्च स पुमान्नरकं व्रजेत् ॥१॥
अर्थ :- जो पुरुष गुरु व अपने स्वामी की निन्दा को शत्रु द्वारा किये जाने पर सुनता है सहन करता है, उसका विरोध नहीं करता, कुपित नहीं होता वह पुरुष नियम से नरक में जाता है ।।1 ॥
निरर्थक विलम्ब से हानि :
स्थित्वापि यियासतोऽवस्थानं केवलमुपक्षयहेतुः 1112 ||
अन्वयार्थ :( स्थित्वा) स्थित (अपि) भी (वियासत:) गमन का इच्छुक ( अवस्थानम्) रुकता है तो (केवलम् ) मात्र यह ( उपक्षय) नाश का ( हेतू) कारण ।
विशेषार्थ :- जो व्यक्ति अपने कार्य की सिद्धि के लिए विदेश गमन के लिए निश्चय कर चुका है, तो भी कारण वश या प्रमादवश नहीं जाता या जाने में विलम्ब करता है तो उसका धन लाभादि कार्य नष्ट हो जाता है। रैम्य ने कहा है :
अवश्यं गन्तव्यमेव
यदि गन्तव्यं तन्न कुर्याद्विलम्बनम् नो चेद्धि तस्माद्वनपरिक्षयः
--
अर्थ नैतिक पुरुष को अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने में विलम्ब नहीं करना चाहिए । अन्यथा उसकी अर्थ क्षति अवश्यंभावी है ।।] ॥
1
117 ||
राजनैतिक प्रकरण में इसका अभिप्राय यह है कि विजिगीषु राजा स्थित होकर भी शक्ति संचय सेना संगठन, कोष सञ्चय आदि करके शत्रु पर शीघ्र आक्रमण नहीं करे, केवल शत्रु को परास्त करने की इच्छा लिए बैठा रहे या विलम्ब करे तो उसके धन-जन, यश की क्षति हो जाती है। क्योंकि शत्रु निर्बल ज्ञात कर उस पर चढ़ाई कर देगा, फलतः उसे परास्त होकर धन जन की क्षति होगी 1112 ||
दूतों से सुरक्षा का दृष्टान्त :
वीर पुरुष परिवारितः शूरपुरुषान्तरितात् दूतान् पश्येत् ॥13॥ श्रूयते हि किलचाणिक्यस्तीक्ष्णदूतप्रयोगेणैकं नन्दं जघान ॥14॥
320