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________________ नीति वाक्यामृतम् । अन्वयार्थ :- (वीर पुरुष परिवारितः) स्वयं सुभटों के मध्य रहकर (शूर पुरुषान्तरितान्) शूरवीरों से घिरे । (दूतान्) दूतों को (पश्येत्) देखे बात करे ।।13 ॥ (हि) क्योंकि (श्रूयते) सुना जाता है (किल) निश्चय से (चाणिक्यः) चाणिक्य ने (तीक्ष्णदूतप्रयोगेन) विषकन्या रुप दूत द्वारा (एकम्) एकाकी (नन्दम्) नन्द राजा को (जपान) मार डाला । विशेषार्थ :- विजिगीषु राजा को स्वयं वीर, भक्त सुभटों के मध्य रहकर एवं शत्रु देश से आये दूतों को भी वीर सैनिकों के मध्य रखकर उनसे वार्तालाप करना चाहिए । सारांश यह है कि सैनिक समूह बिना अकेला राजा शत्रु दूतों को अकेला रखकर बात-चीत न करे अन्यथा वह खतरे में पड़ जायेगा । नारद ने भी कहा है - परदूतान् नृपः पश्येत् वीरै बहुभिरावृतः । शूरै रन्तर्गतस्तेषां चिरं जीवितुमिच्छ या ॥ अर्थ :- रिमाल जीवित रहने का इल्लुक राजा विजिगीषु बहुत से सैनिकों से घिरा रहकर शत्रु दूतों को देखे अर्थात् उनसे वार्तालाप करे ।। ऐतिहासिक सत्य घटना है कि आर्य चाणक्य (ई. से 330 वर्ष पूर्व सम्राट् चन्द्रगुप्त का मन्त्री) ने तीक्ष्ण दूतविषकन्या के प्रयोग द्वारा अरक्षित नन्द राजा को मार डाला था ।14॥ शत्रु द्वारा प्रेषित लेख उपहार के विषय में राजा का कर्तव्य : शत्रु प्रहितं शासनमुपायनं च स्वैर परीक्षितं नोपाददीत ॥15॥ अन्वयार्थ :- (शत्रुप्रहितम्) शत्रु द्वारा भेजा (शासनम्) लेख (च) और (उपायनम्) उपहार (स्वैः) अपने द्वारा (अपरीक्षितम्) परीक्षा नहीं करके (न) नहीं (उपाददीत) ग्रहण करे 1115॥ विशेषार्थ :- शत्रु राजा के यहां से आया दूत लेख या उपहार प्रदान करे तो प्रथम राजा स्वयं उसकी परीक्षा करके ग्रहण करे । प्रथम आत्मीयजनों व प्रामाणिक वैद्यों द्वारा परीक्षित कराकर ग्रहण करे ।। शुक्र विद्वान भी कहते यावत् परीक्षितं न स्वैलिखितं प्राभृतं तथा । शत्रोरम्यागतं राज्ञा तावद् ग्राह्यं न तद्भवेत् ॥1॥ अर्थ :- राजा को शत्रु प्रेषित पत्र व उपहार की जब तक वैद्यादि आस पुरुषों द्वारा प्रमाणित नहीं कराले तब तक उसे स्वीकार नहीं करे ।।1 ॥ दृष्टान्त :श्रूयते हि किल स्पर्शविषवासिताद्भुतवस्त्रोपायनेन करहाटपति: कैटभोवसुनामानं राजानं जघान 116॥ अन्वयार्थ :- (हि) इस प्रकार (किल) निश्चय से (श्रूयते) कहा जाता है (स्पर्श विषवासितः) विष के स्पर्श से वासित (अद्भुत) सुन्दर (वस्त्रोपायनेन) वस्त्र उपहार द्वारा (करहाटपतिः) करहाट के राजा (कैरभः) कैटभ ने (वसुनामानं) वसुनाम के (राजानम्) राजा को (जघान) मार डाला 1116॥ 321
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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