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नीति वाक्यामृतम्
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निकालने का यत्ल (स्वाभीष्पुरुषप्रयोगात) अपने इष्ट पुरुषों के प्रयोग से (प्रकृति क्षोभकरणम्) शत्रु के मंत्री, सेनापति आदि को क्षुमित करना (दूतकर्म) दूत का कर्तव्य है ।
विशेषार्थ :- दूत अपने स्वामी का समाचार लेकर शत्रु राजा के यहां जाता है । वहां निवासकर क्या करे? निम्न कार्य करे :
1. नैतिकाचारपूर्वक शत्रु की सेनादि नष्ट करना 2. राजनीति के उपायों द्वारा शत्रु का अनर्थ करना-अर्थात् शत्र विरोधी-ऋद्ध-लब्ध-भीत-अभिमानी लोगों को दान, सम्मानादि द्वारा वश करना. 3. शत्र के में दानादि द्वारा भेद डालना, 4. शत्रु द्वारा नियुक्त गुप्तचरों का पता लगाना, 5. सीमाधिप-भिाल-आटविककोश, देश, सेना मित्रादि की परीक्षा करना, 6. शत्रुदेश की कन्यारत्न, अश्व, गजादि को निकालने का मार्ग पता लगाना, 7. शत्रुप्रकृति-सेनापति, मंत्री आदि में क्षोभ उत्पन्न करने का प्रयत्न करना ये योग्य दूत के कर्तव्य हैं : कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है :
स्थान समय कर्तव्य की जिसको है पहिचान । बोले पहिले सोचकर, वह ही दूत महान 117 ।।
कुरल पृ.246.हिन्दी अर्थ :- जिसे समुचित क्षेत्र, समुचित समय और योग्य कर्तव्य का भान है-सही परख है, तथा बोलने में जो चतुर है, बोलने के पूर्व अपने शब्दों के फल का निर्णय ले सकता है वही दूत सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है । 8 ॥
मन्त्रिपुरोहित सेनापति प्रतिबद्ध पूजनोपचार विभ्रम्भाभ्यां शत्रोरितकर्तव्यतामन्तः सारतां च विद्यात् 19॥
अन्वयार्थ :- दूत का कर्तव्य है कि शत्रु के (मन्त्रिपुरोहित, सेनापति प्रतिबद्धः) मन्त्रि, पुरोहित सेनापति के योग्य और भी राजा के निकटवर्तियों को (पूजनोपचारेण) सत्कारादि उपाय से (विश्रम्भाभ्याम्) विश्वास देकर (शत्रोरितकर्तव्यता) कामों को (अन्तः) अन्तरङ्ग (सारताम) सार को (च) और भी रहस्य (विद्यात्) जाने ।
विशेषार्थ :- दूत शत्रु के मन्त्री, पुरोहित और सेनाध्यक्ष के समीपवर्ती पुरुषों को धन, सम्मान, दान द्वारा विश्वास उत्पन्न कराकर शत्रु हृदय की गुप्त वार्ता, संग्रामादि के विषय में जानकारी प्राप्त करे । उसके कोशादि की शक्ति का परिज्ञान करे ||
स्वयमशक्तः परेणोक्तमनिष्टं सहेत [10॥ अन्वयार्थ :- (स्वयम्) अपने आप (अशक्तः) असमर्थ (परेण) दूसरे द्वारा (उत्तम्) कहे हुए (अनिष्टम्) अनिष्ट को (सहेत) सहन करे ।
विशेषार्थ :- दूत का कर्तव्य है कि वह स्वयं शत्रु राजा को कठोर वचन न कहकर उसके द्वारा कथित कठोर वाक्यों को सहन करे Ino ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
असमर्थेन दूतेन शवोर्यत् परुषं वचः । तत् क्षन्तव्यं न दातव्यमुत्तरं श्रियमिच्छता ॥ अर्थ :- लक्ष्मी के इच्छुक दूत को शत्रु से कर्कश-कठोर वचन न कहकर उसके कठोर वचनों को सहना
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