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________________ नीति वाक्यामृतम् (13) दूत-समुद्देश दूत के लक्षण, गुण व भेद : अनासन्नेष्वर्थेषु दूतो मंत्री ।। ।। स्वामिभक्तिरव्यसनिता दाक्ष्यं शुचित्वममूर्खता प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्वं शान्तिः परमर्मवेदित्वं जातिश्च प्रथमे दूतगुणाः । ॥ सत्रिविधो निसृष्टार्थ: परिमितार्थः शासनहरश्चेति ।।3।। यत्कृतौस्वमिनः सन्धिविग्रही प्रमाणं स निसृष्टार्थः यथा कृष्णः पाण्डवानाम् 14॥ अन्वयार्थ :- (य:) जो (अनासन्नेषु) दूरवर्ती देशों में (अर्थेषु) पदार्थों-कार्यों में (मन्त्री) मन्त्री के समान हो (सः) वह (दूतः) दूत है । विशेषार्थ :- जो राज अधिकारी दूरवर्ती देशों के विषय में सन्धि-विग्रहादि कार्यों के करने में निपुण हो, मन्त्री समान पदार्थो व विषयों का जानकार हो वह व्यक्ति दूत कहलाता है । "राजपुत्र" नामक विद्वान ने लिखा देशान्तरस्थित कार्य दूतद्वारेण सिद्धति । तस्माद् दूतो यथा मंत्री तत्कार्य हि प्रसाधयेत् ॥1॥ अर्थ :- दूर देश में स्थित कार्यों की सिद्धि दूत के द्वारा ही होती है । इसलिए मंत्री के समान दूरवर्ती सन्धिविग्रहादि जैसे कार्यों को सिद्ध करता है ।। आचार्य कुन्द-कुन्द देव कहते हैं : लोक पूज्ये कुले जन्म हृदयं करुणामयम् । नृपाणां मोद दातृत्वं राजदूतगुणा इमे ॥1॥ कुरल.परि..69..69. अर्थ :- जो लोकमान्य उत्तम कुलोत्पन्न हो, करुणा से परिपूर्ण हृदय वाला हो और राजाओं को आनन्द करने वाला हो वही गुणवन्त राजदूत कहलाता है ।। (स्वामिभक्तिः) राजा के प्रति भक्ति (अव्यसनिता) मद्यपानादि व्यसनों से हीन (दाक्ष्यम्) चातुर्य (शुचित्वम्) . 315
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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