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नीति वाक्यामृतम्
पवित्रता ( अमूर्खता) सुज्ञ, विद्वान (प्रागल्भ्यम्) सहिष्णु (प्रतिमानवत्वम् ) शत्रुरहस्य का ज्ञाता (शान्ति:) शान्त (परमर्मवेदित्वम्) पर के रहस्य का ज्ञाता (च) और (जाति) शुद्ध जाति (प्रथमे) प्राथमिक ( दूतगुणाः) दूत के गुण हैं ।
विशेष :घर के रहस्य को है :
राजभक्ति, मद्य, मांसादि व्यसन रहित, धतुर, निर्मला, विद्वता सहिता, राजविधा विनुणता, शान्त, समझने वाला, और शुद्ध जाति ये दूत के सामान्य एवं प्रमुख गुण हैं । कुरल में भी कहा
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निसर्गात् प्रेमवृत्तित्वं वाग्मित्वं विस्मयावहम्
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प्रतिभावत्वं च दूतानां त्रयो ह्यावश्यका गुणाः ॥12॥
प. 69पृ.69.
प्रभावोत्पादिकावाणी वैदूष्यं समयज्ञता प्रत्युत्पन्नमतित्वञ्च दूतस्य प्रथमे गुणा:
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अर्थ :- स्वभाव से प्रेम व्यवहारी, वचन चातुर्य पटु, आश्चर्यजनक प्रतिभाशाली होना ये तीन दूत के प्रमुख गुण हैं 12 ॥ वाणी का प्रभावोत्पादकता होना, समयानुसार कार्य करने का सम्यक् ज्ञान होना, प्रत्युत्पन्न बुद्धि, ये दूत के प्रथमगुण हैं 116 || शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
दक्षं जात्यं प्रगल्भंच दूतं यः प्रेषयेनृपः I अन्यैश्च स्वगुणैर्युक्त तस्य कृत्यं प्रसिद्ध्यति ॥11॥
अर्थ :- जो राजा चतुर, कुलीन, उदार एवं अन्य दूतोचित गुणों से युक्त दूत को भेजता है, उसका कार्य सिद्ध होता है ।।1 ॥
(स) वह दूत (त्रिविधः ) तीन प्रकार है ( निसृष्टार्थः) निसृष्टार्थ, (परिमितार्थः) परिमितार्थ (च) और (शासनहर: ) शासनहर ( इति ) ।
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विशेषार्थ दूत तीन प्रकार के होते हैं जिसके द्वारा निश्चित किये संग्रह, विग्रह, सन्धि आदि कार्यों को राजा प्रमाण मानता है वह दूत निसृष्टार्थ कहलाता है जैसे पाण्डवों का कृष्ण । अभिप्राय यह है कि कृष्ण ने पाण्डवों की ओर से कौरवों से विग्रह संग्राम निश्चय किया, उसे पाण्डवों को प्रमाणस्वीकृत करना पड़ा । अतः कृष्ण "निसृष्टार्थ" राजदूत थे ।
राजा द्वारा भेजे गये सन्देश व शासन लेख को जैसा का तैसा शत्रु के पास कहने या देने वाले को क्रमशः 'परिमितार्थ " व शासनहर जानना चाहिए ॥14 ॥ भृगु विद्वान ने भी इसी प्रकार कहा है :
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यद्वाक्यं नान्यथाभावि प्रभोर्यद्यप्यनीप्सितम् निसृष्टार्थः स विज्ञेयो दूतो नीति विचक्षणः ॥11 ॥
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