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श्लोक
नास्ति संघातस्य
न दायादादपरः
ना त लोहं
न चातिभग्नं
नयोदिता
न विश्वास घातात्
न हि शास्त्र शिक्षाक्रमेण
न कस्यापि
aratमहत्त्वमात्मनो
न खलु परमाणोरल्पत्वेन
न खलु निर्निमितं
नवसेवक :
परत्रा जिघांसु
पात्रं च त्रिविधं
प्रत्यहं किमपि
परार्थ भाखाहिन
परपरिगृहीता
प्रकृतिपुरुषज्ञो
प्रश्रयसत्कारादि
प्रयत्न: पर निमित्तको
प्रशमैकचित्तं
परिपालको हि राजा
प्रणामावसान: कोपोगु
प्राणावसान: कोपोक्ष
प्रियवचनावसान: कोपोव
पण्यतुलामान
प्रतापवति राज्ञि
प्रजापालनाथ
पानस्त्रीसंगादिजनितो
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समुद्देश
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श्लोक
प्रमादो गोत्रस्खलनादिहेतुः
पीयूषमपिवतो बालस्य
प्रियंवदः शिरवीव
परस्पर मर्मकथन
प्रमादवान्
प्रामादपि
पतिवरा इव
पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं
पुण्यावातिः
प्रज्ञयातिशयानो न
पितरमिव
परगृहे सर्वोऽपि
परकार्येषु
परोक्षे किलोपकृतं
परेणाशु
परमर्मज्ञः
प्रभूतान्तेवासी
पाटच्चरश्चौरो
प्रत्यक्षानुमाना
प्रकृतेर्विकृतिदर्शनं परचित्तानुकूल्येन
पानशौण्डश्चित्त
पिशुन: सर्वेषाम्
परपरिग्रहाभिगमः
प्रजाविभवो हि
प्रत्युपकर्तुरुपकारः
परमभकार्यमश्रद्धेयं
पूजिर्त
प्रजाकाय
प्रासादध्वंसनेन पूज्यै
समुद्देश
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