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________________ मीति वाक्यामृतम्। ईर्ष्यालु गुरु, पिता, मित्र तथा स्वामी की कटु आलोचना : स किं गुरुः पिता सुहद्धा योऽभ्युसूययाऽर्भ बहुदोषं बहुषु वा दोषं प्रकाशयति न शिक्षयति च 153॥ स किं प्रभुर्यश्चिरसेवकेष्वेकमप्यपराधं न सहते । अन्वयार्थ :- (किम्) क्या (स:) वह (गुरु:) शिक्षक (पिता) तात (सुहृद् वा) वामित्र है (य:) जो (अभ्युसूयया) ईर्ष्यावश (बहुदोषम्) अनेक दोषों युत (अर्भम्) पुत्र को (बहुषु) बहुतों के मध्य (दोषम् प्रकाशयति) उसके दोषों को प्रकट करता है (वा) अथवा (च) और (न शिक्षयति) शिक्षा नहीं दे ? 153॥ (किम्) क्या (स:) वह (प्रभुः) स्वामी है (य:) जो (चिरसेवकेषु) पुराने सेवकों के (एकम्) एक (अपराधम्) दोष को (अपि) भी (न सहते) सहन नहीं करता ? क्षमा नहीं करता ।।54॥ विशेष :- जो गुरु, पिता व मित्र अपने शिष्य, पुत्र व मित्र के बहुत से अपराधों को ईर्ष्या वश दूसरों के समक्ष प्रकट करते हैं, उन्हें दूर करने को उन्हें शिक्षा नहीं देते वे गुरु, पिता व मित्र निन्ध, शत्रु व दुर्जन हैं ।। इनका कर्त्तव्य उसे सुशिक्षा प्रदान कर दोषों का परिहार करावें ।।53 ॥ गोतम ने कहा है : शिक्षां दद्यात् स्वशिष्यस्य तदोषं न प्रकाशयेत् । ईयागर्भ भवेद्यच्च प्रभूतस्य अनाग्रतः ॥1॥ अर्थ :- गुरु का कर्तव्य है कि अपने शिष्यों के बहु दोषों को भी दूसरों के समक्ष प्रकाशित नहीं करें । किन्तु उसे हित-कल्याण की शिक्षा देना चाहिए । वह स्वामी निन्दनीय है जो अपने चिरकाल से सेवा करने वाले सेवक का एक अपराध भी क्षमा न करे ।। मनुष्य से यदा-कदा अपराध होना संभव है और स्वामी-सेवक में इसी समय परीक्षा होती है । अत: स्वामी का कर्तव्य है अनेक गणों के साथ एक दोष हो गया तो उसे क्षमा प्रदान कर सन्तुष्ट करे ।।54 ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है : चिरकालचरोभृत्यो भक्ति युक्तः प्रसेवयेत् । न तस्य निग्रहः कार्यो दोषस्यैकस्य कारणात् ।।1।। अर्थ :- मालिक को उस सेवक का, जो सच्चा भक्त होकर चिरकाल से उसकी सेवा-सुश्रुषा करता आ रहा है, केवल एक दोष के कारण उसका निग्रह नहीं करना चाहिए । अपितु क्षमा करना चाहिए ।।54॥ " ॥ इति पुरोहित समुद्देशः ॥" । इति श्री परम् पूज्य प्रातः स्मरणीय, विश्ववंद्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर सम्राट्-समाधि सम्राट् महातपस्वी, वीतरागी, दिगम्बराजैनाचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश तीर्थभक्त शिरोमणि, समाधि सम्राट् आचार्य परमेष्ठी श्री 108 श्री महावीर कीर्ति जी महाराज के संघस्था परम् पूज्य सन्मार्गदिवाकर, कलिकाल सर्वज्ञ श्री 108 आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज की शिष्या, ज्ञानचिन्तामणि, सिद्धान्त विशारदा प्रथम गणिनी आर्यिका श्री विजयामती माता जी द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका परम् पूज्य वात्सल्य रत्नाकर, तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री 108 आचार्य सन्मति सागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में गयारहवां समुद्देश समाप्त हुआ । ॥० ॥ 310
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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