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________________ नीति वाक्यामृतम् विशेष :- उपकार करने की सामर्थ्य विहीन का प्रसन्न होना काश सुमनों समान व्यर्थ है । नदी पर उत्पन्न काश - घास विशेष में पुष्प होते हैं परन्तु फल नहीं देते, उसी प्रकार उपकार करने में असमर्थ की प्रसन्नता निष्फल होती है 1148 ॥ विद्वान ने कहा है : " अफलवतोनृपतेः प्रसादः काशकुसुमस्येव" और भी कहा है : । यस्मिन रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनागमो अनुग्रहो निग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति ॥11॥ अर्थ :- जिसके कुपित होने पर भय नहीं होता और सन्तुष्ट होने पर धन की प्राप्ति नहीं होती उसके उपकार, अपकार भी क्या होगा ? वह क्रोधित हुआ तो भी क्या करेगा ? कोई प्रयोजन नहीं होगा ।।48 ॥ नीतिज्ञ को किसी के गुण व दोष का निर्णय करने पर ही उसका उपकार या अपकार करना चाहिए । इसके विपरीत करने वाला राहु-केतु या भूत-पिशाच ग्रस्त समझना चाहिए । अर्थात् वह दुःख का पात्र होता है । 49 ॥ जो उपकार करने में समर्थ नहीं है उसे सन्तुष्ट करने का प्रयास करना और अपकार करने में असमर्थ को असन्तुष्ट करना अपनी हंसी कराने के सदृश है | 150 11 असत् बहादुरी, उदारधन प्रशंसा व कृपणधन आलोचना :- : ग्राम्यस्त्री विद्रावणकारि गलगर्जितं ग्रामशूराणाम् ॥51॥ सविभवो मनुष्याणां यः परोपभोग्यो न तु यः स्वस्यैवोपभोग्यो व्याधिरिव । 152 ॥ अन्वयार्थ :- ( ग्रामशूराणाम् ) ग्रामीण शूर वीरों की (गलगर्जितम्) गर्जना (ग्राम्यस्त्रीविद्रावणकारि) मात्र ग्रामीण नारियों को भयोत्पादक है न कि नागरिकों को 1151॥ (यः) जो (परोपभोग्ये :) दूसरों के भोग योग्य हो (सः) वह (विभवः) वैभव (मनुष्याणाम्) मनुष्यों का है (यः) जो (स्वस्यैव) अपने ही (उपभोग्यः) उपयोग में आवे (तु) निश्चय (न) धन नहीं अपितु ( व्याधिः) पीडा ( इव) समान है 1152 ॥ विशेष :- भीरु पुरुष जो स्वयं डरपोक हैं वे यदि वीरता दिखाने चलें तो भले ही भोली-भाली ग्रामीण ललनाएँ नीत हों, नागरिक सूर नहीं डर सकते 1151 ॥ धन वही प्रशंसनीय है जो परोपकार में लगाया जाय । किन्तु जिसे धनाढ्य स्वयं रोग के समान भोगता है वह कृपण का धन निन्द्य - त्याज्य है 1152 ॥ वल्लभदेव विद्वान ने कहा है : Į किं तथा क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव के वला या न वेश्येव सामान्या पथिकै रुपभुज्यते 1114 अर्थ :- उस कृपण की लक्ष्मी से क्या लाभ ? जो कि कुल वधू समान केवल उसी के द्वारा भोगी जाती है, और जो सर्वसाधारण वेश्या समान पथिकों द्वारा नहीं भोगी जाती । यहाँ मात्र सम्पत्ति को वेश्या की उपमा दी है उससे कोई वेश्या की प्रशंसा की है यह नहीं समझना चाहिए । 309
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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