SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ----नीति वाक्यामृतम् । उपकारोऽपि नीचानामपकाराय कल्पते । पन्नगेन पयः पीतं विषस्यैव हि वर्द्धनम् ॥11॥ अर्थ :- नीच पुरुष का उपकार करना, स्वयं का अपकार करना है क्योंकि सर्प को दुग्धपान कराने से उसका विष ही वृद्धिंगत होता है 110 क्या-क्या निष्फल होता है : अविशेषज्ञे प्रयासः शुष्कनदीतरणमिव ।।44॥ परोक्षे किलोपकतं सुप्त संवाह नमिव 145 ।। अकाले विज्ञप्तमूषरे कष्टमिव 146 ॥ उपकृत्योद्घाटनं वैरकरणमिव 147 ।। अन्वयार्थ :- (अविशेषज्ञ) मूर्ख में (प्रयासः) समझाने का श्रम (शुष्कनदी) सूखी नदी में (तरणम्) तैरने के (इव) समान है IMAL (परोक्षे) पीठ पीळे (उपकतम) उपकार (किल) निश्चय से (सुप्तसंवाहनम्) सोये हुए के पैर दबाने के (इव) समान [अस्ति] है 145 || (अकाले) असमय में (विज्ञप्तम्) कहना (ऊषरे) वंजरभूमि में (कृष्टम् इव) बीज बोने के समान है ।।46 ॥ (उपकृत्य) उपकार करके (उद्घाटनम्) प्रकट करना (वैरकरणम्) शत्रुता करने के (इव) समान है ।।47 ।। विशेष :- मूखों को समझाना और सूखी नदी को पार करने के समान निष्फल है ।14 | जो मनुष्य किसी की पीठ पीछे उपकार करता है वह सस के पाँव दबाने के समान निष्फल है । यद्यपि उपकार करना बुरा नहीं परन्तु उपकृत्य व्यक्ति को उसका पता नहीं होने से वह उसका प्रत्युपकार कभी नहीं कर सकता इसलिए निरर्थक कहा है 145॥ कोई भी बात अवसर के अनुसार कहना सार्थक होता है । बिना अवसर के शोभा नहीं देती । किसी के विवाह के अवसर पर रोदन करे और मरने पर गीत गाये तो क्या होगा? विपरीत ही होगा 146 || किसी के प्रति किये गये उपकार को उसके समक्ष प्रकट करना वैर-विरोध बढ़ाने के समान है 147 ।। उपकार करने में असमर्थ की प्रसन्नता व्यर्थ : अफलवतः प्रसादः काशकु सुमस्येव ।।8।। गुणदोषावनिश्चित्यानुग्रह निग्रह विधानं ग्रहाभिनिवेश इव 149॥ उपकारापकारासमर्थस्य तोषरोषकरणमात्मविडम्बनमिव ।।50॥ अन्वयार्थ :- (अफलवत:) प्रत्युपकार विहीन की (प्रसादः) प्रसन्नता (काशकुसुमस्य) घास के पुष्प (एव) ही हैं 148 ॥ (गुणदोष अवनिश्वित्य) गुण व दोष का विचार करे बिना (अनुग्रह) उपकार (निग्रहम्) अपकार (विधानम) करना (ग्रहाभिनिवेशम)-पिशाचग्रस्त (इव) के समान 149॥ (उपकार:) भलाई (अपकारः) बुराई (असमर्थस्य) सामर्थ्यरहित का (तोषम्) सन्तोष (रोषम्) कोप (करणम्) करना (आत्म) अपनी (विडम्बना) विडम्बना (करणम्) करने (इव) समान है । 50॥ 308
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy