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________________ नीति वाक्यामृतम् विशेष :- पराये घर में पहुंचने पर सभी विक्रमादित्य बन जाते हैं । अर्थात् दूसरे का धन खर्च कराने में उदारता दिखलाते हैं ।31|| महान् पुरुष वही है जो अपने कार्यों के समान ही दूसरे के कार्यों में भी परमोत्साह प्रकट करते हैं 182 || वादीभसिंह सूरि ने भी कहा है:- स्वापदं न हि पश्यन्ति सन्तः पारार्थ्य तत्पराः ।। 11 2 क्षत्र चूडामणौ पर के कार्य साधन में लोकप्रवृत्ति : परकार्येषु को नाम न शीतलः ।।33॥ अन्वयार्थ :- (परकार्येषु) दूसरे के कार्यों में (कः) कौन (नाम) पुरुष (शीतलः) प्रमादी (न) नहीं [भवति] होता है । दूसरे के कार्यों में कौन निरुत्साह (आलसी) नहीं होता ? सभी होते हैं ।।3।। राजकर्मचारी, धनिक कृपणों का गुणगान हानिकर व धनाभिलाषी को सन्तुष्ट करना : राजासन्न: को नाम न साधुः ।।4।। अर्थ परधनुनयः कवल न्याय 1135॥ को नामार्थार्थी प्रणामेन तुष्यति ।।36॥ अन्वयार्थ :- (राजासन्नः) राजा के पास (को नाम) कौन कर्मचारी (साधुः) सज्जन (न) नहीं [भवति] होता है ? 1B4(अर्थपरेषु) कृपणधनी में (अनुनयः) धनेच्छा से विनय (केवलम्) मात्र (दैन्याय) दीनता मात्र है 185 ॥ (कः) कौन (नाम) पुरुष (अर्थार्थी) धनाभिलाषी (प्रणामेन) नमस्कार से (तुष्यति) सन्तुष्ट होगा ।।6।। विशेषार्थ :- नृप के समक्ष कौन कर्मचारी सरल नहीं हो जाता ? सभी अपनी सभ्यता दण्डभय से कृत्रिम सज्जनता प्रदर्शित करते हैं । न कि स्वाभाविक 134। आवश्यकतानुसार धनाढ्यकृपणों का अनुनय-विनय करना केवल अपनी दीनता ही प्रकट करना है । 35 ॥ अर्थ लाभादि प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।। धनेच्छु व्यक्ति क्या प्रणाम करने से सन्तुष्ट होगा? कभी नहीं |B6A राजकर्मचारियों में समदृष्टि, दरिद्र से धन प्राप्ति, असमर्थ से प्रयोजन सिद्धि : आश्रितेषु कार्यतो विशेषकारणेऽपि दर्शन प्रियालापनाभ्यां सर्वत्र समवृत्तिस्तंत्रं वर्द्धयति अनुरञ्जयति च ।।37 ॥ तनुधनादर्थग्रहणं मृतमारणमिव 108॥ अप्रतिविधातरि कार्यनिवेदनमरण्यरुदितमिव । । अन्वयार्थ :- राजा का कर्त्तव्य है (आश्रितेषु) अपने आधीनों में (कार्यतः) कार्य की अपेक्षा (विशेष कारणे) विशिष्ट कार्य करने में (अपि) भी (सर्वत्र) सर्व जगह (दर्शनप्रियालापनाभ्याम्) समदृष्टि वल मधुर भाषण में (समवृत्तिः) समान व्यवहार (तन्त्रम्) राज्य शासन तन्त्र की (वर्द्धयति) वृद्धि करता है (च) और (अनुरञ्जयति) अनुराग उत्पन्न करती है IB7 || धनहीन-गरीब से धन (तनुधनात्) धनहीन से (अर्थग्रहणम्) धन लेना (मृतमारण) मरे को मारना (इव) समान है 188 । (अप्रतिविधातरि) असमर्थ के समक्ष में (कार्य निवेदनम्) कार्य कराने की प्रार्थना (अरण्यरुदितम् इव) जंगल में रोने के समान है 1B9॥ अर्थात् व्यर्थ है : %3 306
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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