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________________ N नीति वाक्यामृतम् । विद्यार्थी को अपने सहपाठी विद्यार्थियों से भी भाई-बन्धुओं सदृश व्यवहार करना चाहिए ।27 ॥ मनु विद्वान । ने भी इस विषय में कहा है: यथा भ्रातुः प्रकर्तव्यः [स्नेहोऽत्र निर्निबन्धनः] तथा स्नेहः प्रकक्त व्यः शिष्येण ब्रह्मचारिणः ।।1।। अर्थ :- जिस प्रकार अपने सहोदर में सहज स्नेह होता है उसी प्रकार विद्यार्थी को अपने सहपाठियों के साथ भी करना चाहिए || स्वाभाविक प्रेम करना चाहिए ॥ क्योंकि प्रेम से मित्र बनते हैं । कहा भी है : सत्पुरुषों से प्रेममय जिसका है व्यवहार । उसका वैरी अल्प भी कर न सकें अपकार ।।6।।। कुरल-कुन्दकुन्द पारि.. 45 जो लोग सुयोग्य-सज्जनों के साथ प्रेम का व्यवहार रखते हैं, उनके शत्रु उनकी कुछ भी हानि करने में समर्थ नहीं होते ।। शिष्य कर्त्तव्य व अतिथियों से गोपनीय विषय : ब्रह्मचर्यमाषोडशाद्वर्षात्ततोगोदानपूर्वकं दारकर्म चास्य ।।28 ।। समविद्यः सहाधीतं सर्वदाभ्यस्येत् ॥29॥ गृहदौः स्थित्यमागन्तुकानां पुरतो न प्रकाशयेत् ।।30॥ अन्वयार्थ :- छात्र (आषोडशात्) सोलह (वर्षात्) वर्ष पर्यन्त (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य व्रत धारे (ततः) पश्चात् (गोदानपूर्वकम्) गोदान करे (च) और (अस्य) इसका (दारकर्म) विवाह कार्य होना । (समविद्यैः) सहपाठियों के (सह) साथ (अधीतम्) पठित विषय का (सदा) सदैव (अभ्यसेत्) अभ्यास करे ।।29 ।। (गृहदौः) घर की दुर्दशा (स्थित्यम्) विपत्ति को (आगन्तुकानाम्) अतिथियों के (पुरतः) समक्ष (न) नहीं (प्रकाशयेत्) प्रकाशित करे ।501 भावार्थ :- छात्र-विद्यार्थी सोलह वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन करे पुन: गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे ।28 ॥ विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह पठित ग्रन्थों का अपने साथियों के साथ अभ्यास करें।29 | नीतिज्ञ मनुष्य को अपनी गृहस्थितिदारिद्रतादि को अतिथि के समक्ष प्रकाशित नहीं करनी चाहिए 1301 पर-गृह में प्रविष्ट पुरुषों की प्रवृत्ति व महापुरुष का लक्षण : परगृहे सर्वोऽपि विक्रमादित्यायते ।।31॥ स खलु महान् यः स्वकार्येष्विवपरकार्येषूत्सहते ॥32॥ "स्वकार्येषु उत्सहते" पाठान्तर अन्वयार्थ :- (परगृहे) दूसरे के घर में (सर्वाः) सभी (अपि) भी (विक्रमादित्यायते) विक्रमादित्यसम उदार बन जाते हैं ।01॥ (खलु) निश्चय से (सः) वह (महान्) महान् है (य:) जो (स्वकार्येषू) अपने कार्यों के (इव) समान (परकार्येषु) दूसरे के कार्यों में (उत्सहते) उत्साहित होते हैं । 132॥ 305
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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