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________________ नीति वाक्यामृतम् अन्वयार्थ :- (विध्यायतः) बुझने वाला (प्रदीपस्य) दीपक के (इव) समान (नय) नीति (हीनस्य) रहित की (वृद्धिः) उन्नति है । विशेषार्थ :- अस्त होने वाला दीपक तेज प्रकाशित होकर तत्काल बुझकर अंधकार फैलाता है उसी प्रकार अन्यायी राजा का या मनुष्य का वैभव कुछ ही समय के लिए प्रसारित होकर नष्ट हो जाता है । नारद विद्वान ने कहा है : चौर्यादिभिः समृद्धिया पुरुषाणां प्रजायते । ज्योतिष्कस्येव सा भूति नाशकाल उपस्थिते ।1॥ अर्थ :- अन्यायी मनुष्यों का अत्याचार, तस्करी आदि से वृद्धिगंत उन्नति, उस दीपक के समान है जो बुझने के लिए अपना पूर्ण प्रकाश व्याप्त कर देता है ।। कृतघ्न सेवकों की निन्दा : जीवोत्सर्गः स्वामिपदमभिलषतामेव ।।162 ।। अन्वयार्थ :- (जीवोत्सर्गः) सेवक (स्वामिपदम्) मालिक के पद को (अभिलषिताम्) अभिलाषा करने वाला (एव) ही [कृतघ्नः] कृतघ्न है ।। विशेषार्थ:- जो सेवक व अमात्य आदि अपने स्वामी के पद राज्य की कामना करते हैं वे कृतघ्न मृत्यु प्राप्त करते हैं । अतः उन्हें स्वामी पद की कामना उचित नहीं ।। तीव्रतम अपराधियों को मृत्युदण्ड देने से लाभ, व क्षुब्धराजकर्मचारी : बहुदोषेषु क्षणदुःख प्रदोऽपायोऽनुग्रह एवं 163 ।। स्वामिदोषस्वदोषाभ्यामुपहतवृत्तयः क्रुद्ध-लुब्ध-मीतावमानिता:कृत्याः ।।164॥ अन्वयार्थ :- (बहुदोषेषु) अधिक अपराधी (उपायः) मृत्यु दण्ड का पात्र किया जाय (क्षण दुःख प्रद) क्षणभर को दुःखप्रद (अनुग्रहः) उपकार (एव) ही है । विशेषार्थ :- तीव्रतम अपराधियों का विनाश राजा को क्षणिक काल के लिए दुखकारी होता है । वास्तव में यह उसका उपकार ही समझना चाहिए क्योंकि इससे राज्य की श्री वृद्धि होती है । हारीत विद्वान ने भी कहा अवध्या अपि वध्यास्ते ये तु पापा निजा अपि । क्षणदुःखे च तेषां च पश्चात्तच्छे यसे भवेत् ।।1।। अर्थ :- पापी दुष्ट जीव मनुष्य अबध्य है और पापाचार में रत हो तो उसे मृत्यु दण्ड ही उचित है क्योंकि यह तत्क्षण दुःख कारक होकर भी भविष्य के लिए महासुखद और राज्य व्यवस्था को समुन्नत करने वाला होता है 11631 293
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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