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-नीति वाक्यामृतम् । वृथालापं च यः कुर्यात् स पुमान् हास्यतां व्रजेत् ।
पतिंवरा पिता यद्वदन्यस्यार्थे वृथा ददत् ॥1॥ अर्थ :- जो मनुष्य निरर्थक वाणी बोलता है उसकी हंसी होती है । जिस प्रकार स्वयं स्वयम्बर में पति चुनने वाली कन्या को यदि अन्य के साथ विवाह दे तो वह पिता का आदर नहीं करती ।। मूर्ख व जिद्दी को उपदेश देने से हानि :
तत्र युक्त मप्युक्त मयुक्त समं यो न विशेषज्ञः ।1159॥ "तत्रयुक्तमप्युक्तमनुक्तसमं" भी पाठ है :स खलु पिशाची वातकी वा यः परेऽनर्थिनी वाचमुद्दीरयति ।।160॥"पातकी" भी है ।
अन्वयार्थ :- (यः) जो (विशेषज्ञ:) विशिष्टज्ञानी (न) नहीं (तत्र) उसे (युक्तम्) योग्य भी (उक्तम्) कथन (अयुक्त) व्यर्थ (समम्) समान [अस्ति] है । (सः) वह पुरुष (खलु) निश्चय ही (पिशाच की) भूतग्रस्त (वा) अथवा (वातकी) सन्निपात ग्रस्त है (य:) जो (परे) दूसरों को (अनर्थिनि) अनिष्टकारक (वाचम्) वाणी (उद्दीरयति) बोलता है 11160॥
विशेषार्थ :- जो किसी के कथन पर पूर्वाचर विचार नहीं करता अथवा किस अभिप्राय से क्या कहा गया है इसे नहीं समझता, उसके समक्ष उचित वार्ता करना भी अयोग्य के सदृश है । सारांश यह है कि मूर्ख को उपदेश देना निष्फल है ।। वर्ग विद्वान ने कहा है :
अरण्यरुदितं तत्स्यात् यन्मूर्खस्योपदिश्यते ।
हिताहितं न जानाति जल्पितं न कदाचन ॥1॥ अर्थ :- मूर्ख को उपदेश देना अरण्य में रोदन करने के समान है । व्यर्थ है क्योंकि वह हिताहित का विचार नहीं करता । अतः बुद्धिवन्तों को उससे बात नहीं करना चाहिए ।
जिस वक्ता की बात श्रोता सुनना नहीं चाहते और वह बोलता ही रहता है उसकी लोग निन्दा करते हैं कि "यह पिशाच से डशा है अथवा इसे वायुरोग हो गया है इसीसे यह निरर्थक वार्तालाप कर रहा है 1160 || भागुरि विद्वान भी कहते हैं :
अश्रोतुः पुरतो वाक्यं यो वदेद विचक्षणः ।
अरण्यरु दितं सोऽत्र कुरुते नात्र संशयः ॥1॥ अर्थात् जो वक्ता उसकी बात नहीं सुनने वाले के सामने उपदेश करता है वह मूर्ख है । क्योंकि निसन्देह वह अरण्यरोदन कर रहा है ? वचन वहीं कहना जहाँ सफल हो ।।1601 नीतिशून्य पुरुष की क्षति :
विध्यायतः प्रदीपस्येव नयहीनस्य वृद्धिः ।।161 ।। "बुद्धि" भी पाठ है ।
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